Consultation in Corona Period-245 Pankaj Oudhia पंकज अवधिया

Consultation in Corona Period-245 Pankaj Oudhia पंकज अवधिया "Autism के मामले जिस तेजी से बढ़ रहे हैं उसकी तुलना में Autism पर बहुत अधिक शोध दुनिया भर में नहीं हो रहे हैं। यह खुशी की बात है कि आप सभी लोग अगले 50 सालों तक अपना ध्यान Autism पर केंद्रित करेंगे और इस पर गहन शोध करेंगे।" पुणे में वैज्ञानिकों के एक दल के सामने मैं अपना व्याख्यान प्रस्तुत कर रहा था। मुझे इस कार्यक्रम के लिए विशेष रूप से अतिथि वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया था। मुझे Autism पर अपने अनुभव उन सभी वैज्ञानिकों को बताने थे जिससे कि वे अपने भविष्य के शोध के लिए विषय का चुनाव कर सकते। न केवल Autism के लिए बल्कि गर्भावस्था से संबंधित सभी बीमारियों के लिए। "भारत के पारंपरिक चिकित्सक पैरों के तलवों पर विशेष ध्यान देते हैं। वे कहते हैं कि यदि पैरों के तलवों की अच्छे से देखभाल की जाए तो गर्भावस्था की किसी भी समस्या से सफलतापूर्वक निपटा जा सकता है। गर्भावस्था की शुरुआत में यदि पैरों में विशेषकर तलवों में किसी प्रकार का दोष है तो उत्पन्न होने वाली संतान में कई तरह के दोष उत्पन्न हो जाते हैं। इन चिकित्सकों की बात सही मालूम पड़ती है क्योंकि आधुनिक शहरों में जहां कि प्रदूषण बहुत चरम स्तर पर है, पैरों में काली धूल जम जाती है। इस काली धूल में कई तरह के विषाक्त रसायन होते हैं जो तलवों के माध्यम से शरीर में प्रवेश करने की क्षमता रखते हैं। मध्य भारत में जब यह जानने के लिए विस्तार से शोध किया गया कि क्या इस काली धूल का होने वाले बच्चे के स्वास्थ पर किसी तरह का प्रभाव पड़ता है तो आरंभिक निष्कर्षों से पता चला कि यह काली धूल बहुत हद तक Autism के लिए जिम्मेदार है। आधुनिक विज्ञान भी इस बात को मानता है कि तरह -तरह के प्रदूषण का असर गर्भावस्था में होता है और इससे बच्चे के दिमाग के विकास में बाधा पहुंचती है। विदेशों में किए गए शोधों से पता चलता है कि मुख्य मार्ग के पास रहने वाले लोगों के घर होने वाले बच्चों में Autism की समस्या तुलनात्मक रूप से अधिक होती है। ऐसा वायु प्रदूषण के कारण होता है। देश की पारंपरिक चिकित्सा में गर्भावस्था के अलग-अलग महीनों में तरह-तरह के लेपों को तलवों में लगाने का अनुमोदन किया जाता है। अनुमोदन का यही उद्देश्य है कि गर्भावस्था में बच्चे के ऊपर किसी भी तरह का विपरीत प्रभाव नहीं पड़े और उसका सामान्य ढंग से विकास होता रहे।" मैंने अपने संबोधन के दौरान वैज्ञानिकों को यह बात बताई और उन्हें आगे बताया कि छत्तीसगढ़ के पारंपरिक चिकित्सक कई तरह के लकड़ी के पाटा का उपयोग करते हैं जिस पर गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को 2 से 3 घंटे तक प्रतिदिन पैर रखना होता है। यह छत्तीसगढ़ का विशेष पारंपरिक ज्ञान है और इसकी मिसाल दुनिया में और कहीं नहीं मिलती है। इन लकड़ी के पाटों का निर्माण पारंपरिक चिकित्सक स्वयं करते हैं पुराने वृक्षों की लकड़ियों की सहायता से। ये पाटे व्यवसायिक उत्पाद के रूप में बाजार में नहीं मिलते हैं। मेरी बातों को सुनकर एक वैज्ञानिक ने इस शोध में अपनी रुचि दिखाई। मैंने उनसे कहा कि मैं आपकी पूरी मदद करूंगा। आपको इस बारे में जो भी जानकारी चाहिए होगी या पारंपरिक चिकित्सक से मिलना होगा उसका प्रबंध मैं करूंगा। मैंने अपना संबोधन जारी रखा और बताया कि दुनिया के बहुत से देशों में गर्भावस्था के दौरान मछली का प्रयोग करने से भी Autism की समस्या बच्चों में हो जाती है। इसमें मछली का किसी भी प्रकार से दोष नहीं होता है। दोष होता है मछली में उपस्थित जहरीले रसायनों का जो कि समुद्र के पानी से या नदी के पानी से उनके शरीर में पहुंच जाते हैं। इन रसायनों में मरकरी की भूमिका विशेष रूप से उल्लेखनीय है। मरकरी का प्रयोग तो होम्योपैथिक दवा और आयुर्वेदिक दवा में भी होता है। इन चिकित्सा पद्धतियों के विशेषज्ञ इस बात को अच्छे से जानते हैं इसलिए वे गर्भावस्था के दौरान ऐसे रसायनों का प्रयोग नहीं करते हैं पर आजकल तो इंटरनेट के कारण हर कोई चिकित्सक बन गया है जिसके कारण बिना विशेषज्ञ की सलाह के लोग होम्योपैथिक दवाओं का प्रयोग कर लेते हैं जिनमें कि मरकरी का प्रयोग किया जाता है और जाने अनजाने बच्चे Autism के शिकार हो जाते हैं और जीवन उनके लिए अभिशाप बन जाता है। न केवल उनके लिए बल्कि उनके माता-पिता के लिए भी। दक्ष वैद्य भूल कर भी मरकरी और गंधक के फार्मूलों का प्रयोग गर्भावस्था के दौरान नहीं करते हैं पर इंटरनेट पर दिए गए आधे अधूरे ज्ञान के आधार पर बहुत से रिश्तेदार अपने परिचितों को इन आयुर्वेद उत्पादों का अनुमोदन कर देते हैं जिससे कि बात बिगड़ जाती है। हाल ही में मुझे एक ऐसा केस देखने को मिला जिसमें की एक रिश्तेदार ने अपने परिचित को ब्राह्मी घृत का प्रयोग करने के लिए कहा था गर्भावस्था के दौरान पर जब बच्चे का जन्म हुआ तो उसमें कई तरह के विकार उत्पन्न हो गए। जब पूरी तरह से जांच की गई तो पता चला कि ब्राह्मी घृत में ब्राह्मी का प्रयोग किया ही नहीं गया था बल्कि उसके स्थान पर मंडूकपर्णी का प्रयोग किया गया था जो कि दोषपूर्ण थी। साथ ही ब्राह्मी घृत का अनुमोदित मात्रा में प्रयोग करने के स्थान पर दुगुनी या तिगुनी मात्रा में इसका प्रयोग किया गया था। जिससे हालात और बिगड़ गए। जब मैंने सारी बात खुलकर बच्चे के माता-पिता को बताई तो उन्होंने सिर पीट लिया और कहा कि उन्हें तो इस ब्राह्मी घृत की जरूरत नहीं थी। वह तो रिश्तेदार थे जिनके दबाव पर उन्होंने इसका प्रयोग किया पर अब पछताने से क्या होगा क्योंकि अब बहुत देर हो चुकी थी। कई तरह के फार्मूलों के संपर्क में आने से भी Autism की समस्या हो जाती है। इस बारे में आधुनिक विज्ञान कम जानकारी रखता है पर पारंपरिक चिकित्सकों को इस बारे में विस्तार से जानकारी है। उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ में एक पौधा होता है जिसका नाम कलिहारी है। इसका नाम झगड़इन रख दिया गया है और इसके बारे में यह बातें फैला दी गई है कि इसे घर में लगाने से घर में झगड़ा होता है। यही कारण है कि लोग इस वनस्पति को अपने घर से दूर रखते हैं और जब इसकी खेती की जाती है तो गर्भावस्था में खेत में प्रवेश को पूरी तरह से वर्जित कर दिया जाता है पर आधुनिक लोग इसे अंधविश्वास मानते हैं। देश के कई हिस्सों में इस वनस्पति के सुंदर फूलों के कारण इसका नाम गणेशफूल रख दिया गया है और लोग इन फूलों को गणेश जी को चढ़ाने लगे हैं। चूँकि यह वनस्पति बहुत जहरीली होती है संदर्भ साहित्य इसके जहरीलपन को इस तरह से बताते हैं कि तमिल टाइगर अपने सुसाइड कैप्सूल में इसकी जड़ का प्रयोग करते थे। इसकी जड़ को मुंह में रखते ही कुछ समय बाद मृत्यु हो जाती है। देश के पारंपरिक चिकित्सक इस बात को जानते हैं इसलिए उन्होंने हमेशा लोगों को सलाह दी कि इस वनस्पति से दूर रहा जाए ताकि किसी भी तरह की विषाक्तता की संभावना न रहे। मैंने ऐसे सैकड़ों मामले देखे हैं जिनमें कि गर्भावस्था के दौरान महिलाएं इस फूल के संपर्क में आई थी और उन्होंने इस पौधे की देखभाल की थी। ज्यादातर मामलों में जब उनकी संतानें हुई तो उन्हें तरह-तरह के विकार थे। मैंने इस बारे में बहुत लिखा पर लगता है कि लोग इस सत्य को समझने के लिए तैयार नहीं है। इस बात की जानकारी देने के बाद तीन वैज्ञानिकों ने इस विषय में अपनी रुचि दिखाई और उन्होंने कहा कि वे ऐसे पौधों पर अपना अनुसंधान केंद्रित करेंगे जो कि लोगों के बगीचे में होती है और जिससे जन स्वास्थ्य को नुकसान हो सकता है। गर्भावस्था में इन वनस्पतियों के संपर्क में आने से Autism की समस्या हो सकती है। मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और उसी समय उनसे कहा कि आप इस विषय में मेरे आलेखों और शोध पत्रों को ऑनलाइन पढ़ सकते हैं। यह कहकर मैंने उन्हें संबंधित कड़ियों के बारे में विस्तार से बताया। इस बीच मैंने उन्हें एक और बात बताई कि आजकल अच्छी क्वालिटी की हवाई चप्पल बाजार में उपलब्ध नहीं है। सस्ते के नाम पर ऐसी सामग्री से इन चप्पलों को बनाया जा रहा है जो कि शरीर के लिए बहुत नुकसानदायक है। तलवों के माध्यम से इन रसायनों का शरीर के अंदर प्रवेश हो जाता है और कई तरह की नर्वस सिस्टम की बीमारियां हो जाती है। इस बात की जांच किसी स्तर पर भी नहीं की जाती कि हवाई चप्पल बनाने के लिए किस तरह की सामग्री का उपयोग किया जा रहा है। आजकल रंग बिरंगी हवाई चप्पल आती है जिसमें खतरनाक रसायन से युक्त रंगों का प्रयोग किया जाता है और यह काफी हद तक Autism के लिए जिम्मेदार होता है। पारंपरिक चिकित्सा में तो तरह-तरह के खड़ाऊ के प्रयोग का अनुमोदन किया जाता है पर यदि आधुनिक शहरों में खड़ाऊ उपलब्ध न हो तो भी ऐसी कंपनियों की हवाई चप्पल का उपयोग किया जा सकता है जिन्हें कि अच्छी सामग्री से बनाया गया है और जिनके प्रयोग से किसी तरह का नुकसान नहीं होता है। इस विषय में भी बहुत से वैज्ञानिकों ने गहरी रूचि दिखाई और आगे अनुसंधान करने का मन बनाने लगे। मैंने उन वैज्ञानिकों के सामने यह भी बताया कि ऑटोइम्यून डिजीज होने पर जरूरी है कि पहले इस बीमारी पर नियंत्रण किया जाए और बेहतर तो यही है कि इसका पूरी तरह से समाधान किया जाए। उसके बाद फिर संतानोत्पत्ति की बात सोची जाए। इसी तरह बहुत प्रकार के त्वचा रोगों को भी पहले ठीक करने की जरूरत है। उसके बाद ही पर संतानोत्पत्ति के प्रयास करने की जरूरत है। गर्भावस्था के आरंभिक चरणों में माता को तरह-तरह की त्वचा से संबंधित बीमारियां यदि हैं तो विशेष रूप से ध्यान देकर इसकी चिकित्सा करवानी चाहिए अन्यथा गर्भस्थ शिशु पर बुरा असर पड़ता है विशेषकर दिमाग पर और Autism जैसी समस्याएं होने लग जाती है। मेरा व्याख्यान लगातार 8 घंटे तक चलता रहा और सारे वैज्ञानिक दम साधे बैठे रहे और रुचिपूर्वक मेरी बातों को सुनते रहे। वे तरह-तरह के प्रश्न पूछते रहे। व्याख्यान खत्म होने के बाद उन्होंने मुझे आश्वस्त किया कि वे इस पर विस्तार से रिपोर्ट बनाएंगे और मुझे फिर से आमंत्रित करेंगे ताकि मैं उस रिपोर्ट में अपने विचार दे सकूं। सभी ने धन्यवाद दिया। मैंने उन्हें शुभकामनाएं दी। सर्वाधिकार सुरक्षित

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