Consultation in Corona Period-51

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Pankaj Oudhia पंकज अवधिया


"ये Autism नही Drug induced Autism है।"


मैं उत्तर भारत के एक शोध संस्थान के निदेशक से बात कर रहा था जो कि बाल रोग पर दुनिया भर में अनुसंधान करते हैं।


 उन्होंने मेरे साथ अनुबंध किया उन मामलों की चर्चा करने के लिए जिनका समाधान उन्हें किसी भी तरह से नहीं मिल रहा था। 


उन्होंने 500 ऐसे बच्चों के मामले प्रस्तुत किए जिन्हें कि साल में विशेष महीनों में दस्त हो जाते हैं और फिर महीनों तक ये दस्त जारी रहते हैं। 


उनमें किसी भी प्रकार का इन्फेक्शन नहीं होता है और न ही ये पानी की अशुद्धि के कारण होता है। फिर मौसम बीत जाने पर उनके दस्त रुक जाते हैं और वे शारीरिक व मानसिक दोनों ही रूप से सुस्त हो जाते हैं। 


जो बच्चे पढ़ाई में तेज थे वे बैकबेंचर हो गए और ज्यादातर समय उन्हें देखकर ऐसा लगता है जैसे कि वे किसी तरह के नशे में हो। 


उनकी खुराक भी बहुत कम हो गई है और उनके बहुत सारे लक्षण ऑटिज्म की तरह लगते हैं पर वैज्ञानिक परीक्षण से पता चला है कि उनके दिमाग में किसी भी प्रकार की कोई समस्या नहीं है और वे Real Autism के मरीज नहीं है। 


ये बच्चे उन इलाकों से है जो कि देश के ग्रामीण क्षेत्र कहलाते हैं। ये सभी बच्चे स्कूल जाते हैं पर स्कूल में सुस्त बैठे रहते हैं।


 किसी भी काम में इनका मन नहीं लगता है। उन्होंने आगे कहा।


मैंने उनकी बात ध्यान से सुनी और उनसे कहा कि वे पता करें कि क्या इन बच्चों के स्कूल में जेट्रोफा यानी रतनजोत के पौधे लगे हैं। 


उन्होंने इस बात का पता किया और बताया कि जिस क्षेत्र के ये बच्चे है उस क्षेत्र में न केवल स्कूलों में बल्कि मेड़ों और खाली जमीनों पर बड़ी संख्या में रतनजोत का प्लांटेशन किया गया है।


 मैंने खुलासा किया कि रतनजोत का पौधा जिसे कि बायोडीजल के स्रोत के रूप में प्रचारित किया गया और बड़े पैमाने पर देश के विभिन्न हिस्सों में लगाया गया अति उत्साह के चलते योजनाकारों ने ये नहीं ध्यान दिया कि ये एक जहरीला पौधा है और एक तरह का Neurotoxin है। 


इसके पौधे को छूने से ही कई प्रकार के विकार पैदा हो जाते हैं। यही कारण है कि पहले रतनजोत को खेत के चारों ओर लगाया जाता था ताकि किसी भी प्रकार के जानवर खेत के अंदर न आए। 


इन्हें कभी भी घरों के पास और स्कूलों में नहीं लगाया जाता था। 


वैज्ञानिक अनुसंधान से पता चला है कि इसके बीजों से निकलने वाला तेल त्वचा का कैंसर भी पैदा कर सकता है। इसका धुँआ बहुत जहरीला होता है जो कि फेफड़े के कैंसर को फैलने में मदद करता है। 


सबसे खतरनाक इसके बीज होते हैं और स्कूली बच्चों की पहुँच इनके बीजों तक होती है। 


दुर्भाग्य से ये बीज बड़े स्वादिष्ट होते हैं और बच्चे जाने अनजाने उसे खा लेते हैं। 1-2 बीज खाने से तो उस समय कोई विशेष हानि नहीं होती है पर इससे अधिक बीज खाने पर दस्त होने लग जाते हैं और बहुत अधिक मात्रा में यानी चार से पांच बीज खाने पर तेज दस्त होने लग जाते हैं और जान पर बन आती है। 


आपको ये जो प्रभाव बच्चों पर दिख रहे हैं ये रतनजोत के बीज खाने के कारण ही है। 


ये बच्चे अब जान चुके हैं कि इन बीजों का अधिक मात्रा में खाने से उनको बहुत ज्यादा तकलीफ हो सकती है इसलिए भूख के कारण और अपने शौक के कारण ये एक से दो बीजों का प्रयोग नियमित तौर पर करते हैं। 


यह उनके लिए इसलिए आसान हो जाता है क्योंकि रतनजोत के पौधे उनके स्कूलों में मौजूद है और कोई उन्हें ये नहीं बताने वाला है कि इसे खाने से कई तरह के नुकसान हो सकते हैं।


 देश के पारंपरिक चिकित्सक ये साफ-साफ बताते हैं कि एक से दो बीजों का प्रयोग लंबे समय तक करने से (लंबे समय अर्थात 6 महीने से अधिक समय) तक करने से बच्चों में सुस्ती आ जाती है। 


वे मानसिक रूप से विकलांगता की ओर बढ़ने लग जाते हैं। 


जब रतनजोत में बीज आते हैं तभी ये सब उत्पात होते हैं। उस समय उनको मौसम भर दस्त होते हैं। इससे वे बुरी तरह से कमजोर हो जाते हैं। दस्त किसी भी तरह से नहीं रुकते। 


जब तक बीज पेट में रहते हैं तब तक दस्त होते रहते हैं और जब बीज पेट से निकल जाते हैं तो दस्त बंद हो जाते हैं।


 ये दस्त बहुत मरोड़ के साथ आते हैं और बच्चों को बहुत पीड़ा होती है। उन्हें ये नहीं समझ में आता कि ये सब रतनजोत के कारण हो रहा है। 


वे डॉक्टरों को ये नहीं बताते हैं कि उन्होंने रतनजोत के बीज खाए हैं जिसके कारण ये समस्या हो रही है। 


अगर डॉक्टरों को वे ये बता सके कि उन्होंने इस जहरीले बीज को खाया है तो वे तुरंत उसकी उल्टी करा देंगे और उनकी समस्या तुरंत ही ठीक हो जाएगी पर ऐसा नहीं होता है। 


अब रतनजोत से बायोडीजल बनने की योजना ठप हो चुकी है पर यह खरपतवार की तरह तेजी से फैलते जा रहा हैं। यह एक नासूर बनता जा रहा हैं गाजर घास की तरह विशेषकर बच्चों के लिए। 


इस बारे में शायद हमारे अनुसंधानकर्ता भी ज्यादा जागरूक नहीं है इसलिए इस पर गहनता से शोध नहीं हो रहे है पर पारंपरिक चिकित्सक इस बात को बड़े अच्छे से जानते हैं और अपने आसपास के लोगों को आगाह करते रहते हैं कि वे किसी भी हालत में रतनजोत के संपर्क में नहीं आए।


 शोध संस्थान के निदेशक ने इस पर बड़ा आश्चर्य व्यक्त किया और कहा कि इस समस्या को तो विश्व स्तर पर उठाने की जरूरत है। 


मैंने उनसे कहा कि सबसे ज्यादा जरूरत है कि बच्चों को इस बारे में बताया जाए और इन पौधों को स्कूलों से पूरी तरह से नष्ट किया जाए। 


जब जेट्रोफा में बीज आते हैं तो उस समय बड़े स्तर पर जन जागरण किया जाना चाहिए कि यदि बच्चों को इस समय  दस्त होते हैं तो इसका एक कारण जेट्रोफा के बीज भी हो सकते हैं। 


तभी आसपास के क्षेत्र के चिकित्सक जागरूक होंगे और इससे बच्चों के शरीर में स्थाई रूप से होने वाले नुकसान से उन्हें बचा सकेंगे।


निदेशक महोदय ने पूछा कि क्या इसका कोई इलाज है अर्थात जो बच्चे इसे सालों से खा रहे हैं और उनके दिमाग में जो स्थाई परिवर्तन हो गए हैं क्या उन परिवर्तनों को फिर से ठीक किया जा सकता है? क्या वे फिर से सामान्य बच्चों की तरह व्यवहार कर सकते हैं?


 मैंने उन्हें कहा कि भारतीय पारंपरिक चिकित्सा में ऐसे बहुत से नुस्खे हैं जिनके प्रयोग से ऐसा किया जा सकता है। 


इस क्षेत्र में मेडिसिनल राइस अहम भूमिका निभा सकते हैं। मैंने उन्हें 25 प्रकार के मेडिसनल राइस की जानकारी दी जो देश के विभिन्न हिस्सों में उगाए जाते हैं और जिनके प्रयोग से बच्चों को फिर से ठीक किया जा सकता है।


मैंने उनसे जोर देकर कहा कि जरूरी ये है कि वे सब भविष्य में रतनजोत के बीजों का प्रयोग नहीं करें।


 इन मेडिसिनल चावल को उन्हें भोजन के रूप में लंबे समय तक दिया जा सकता है। ये अलग-अलग बाल रोगों में भी काम आएंगे। साथ में रतनजोत की विषाक्तता को भी शरीर से पूरी तरह से समाप्त करेंगे।


 उन्होंने मुझसे इस पर एक रिपोर्ट बना कर देने को कहा जो कि मैंने तुरंत बना कर दे दी। 


उन्होंने धन्यवाद ज्ञापित किया। 


संस्थान के निदेशक ने एक और विशेष श्रेणी के बच्चों से भी मुलाकात करवाई जिनके बारे में उनके माता-पिता को शिकायत थी कि वे आम बच्चों की तुलना में पढ़ाई में तेज नहीं है। 


उन्हें मेमोरी टॉनिक के साथ ब्राह्मी और शंखपुष्पी जैसी जड़ी बूटियां भी दी जाती है फिर भी उनकी मेमोरी ठीक नहीं होती है।


 वे अक्सर बीमार रहते हैं और आम बच्चों की तुलना में जल्दी से बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। 


क्या इन बच्चों को कुछ ऐसे मेडिसिनल राइस दिए जा सकते हैं जिनसे इनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़े और ये आम बच्चों की तरह अच्छे से पढ़ाई कर सकें? उन्होंने पूछा।


मैंने उन बच्चों के बारे में सारी रिपोर्ट पढ़ने के बाद निर्देशक महोदय को कहा कि आईवीएफ से पैदा हुए बच्चों में इस तरह की कमी देखी जाती है। इसे विज्ञान भी मानता है कि आईवीएफ से पैदा हुए बच्चे आम बच्चों की तरह नहीं होते हैं। 


वे रोग के प्रति अति संवेदी होते हैं और उन्हें विशेष देखभाल की आवश्यकता होती है। 


मैंने अपने अनुभव से देखा है कि ज्यादातर जड़ी बूटियां इन बच्चों पर वैसा असर नहीं करती है जैसा कि वे आम बच्चों पर करती है। 


इसका वैज्ञानिक कारण मुझे मालूम नहीं है पर ये मेरा अनुभव है। इसलिए इन बच्चों के माता-पिता को इनसे ज्यादा उम्मीद नहीं करनी चाहिए बल्कि इन्हें संभाल कर रखना चाहिए और किसी भी प्रकार के शारीरिक व मानसिक तनाव से बचाना चाहिए।


 इसके बाद उन्होंने ऐसे बच्चों के ग्रुप के बारे में बताया जिन्हें बचपन में ही तरह-तरह की एलर्जी हो जाती है। उन्होंने मुझे बहुत सारी तस्वीरें दिखाई और एलर्जी के लक्षणों के बारे में विस्तार से समझाया। 


मैंने उन्हें बताया है कि पारंपरिक चिकित्सा में दूध के साथ तेल की किसी भी वस्तु का प्रयोग मना होता है। इसी तरह दूध के साथ नमक का प्रयोग भी मना कर दिया जाता है। 


आप जिन मामलों को मुझे दिखा रहे हैं उन बच्चों को हो रही एलर्जी का कारण ऊपर बताये गए दो दोष ही है। 


बच्चे आजकल शौक से कार्न फ्लेक्स का प्रयोग करते हैं। वे दूध के साथ इसे लेते हैं जबकि कार्न फ्लेक्स के पैकेट में ये साफ-साफ लिखा रहता है कि इसमें नमक होता है। 


इस तरह वे अनजाने में ही नमक के साथ दूध का प्रयोग कर लेते हैं और उनसे उनको तरह तरह की एलर्जी हो जाती है जिसके बारे में आप मुझे बता रहे हैं। 


इसी तरह बच्चे तरह-तरह के बिस्किट के शौकीन होते हैं। बिस्किट में तेल होता है जिसे कि बिस्किट को स्वादिष्ट बनाने के लिए उसकी हर परत में डाला जाता है। 


यह तेल दूध के साथ जब प्रतिक्रिया करता है तो तरह-तरह की एलर्जी हो जाती है। इन दोनों चीजों का अगर बच्चे और उनके माता-पिता ध्यान रखेंगे तो बचपन में होने वाली एलर्जी से वे बचे रहेंगे। 


इस तरह उन्हें सारे मामलों का समाधान मिल गया। 


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