Consultation in Corona Period-121

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Pankaj Oudhia पंकज अवधिया


"हमने आपके और पारंपरिक चिकित्सकों के साथ मिलकर सिकल सेल एनीमिया की जो दवा तैयार की थी उसका क्लीनिकल ट्रायल अब फाइनल स्टेज में है पर उस फार्मूले में कुछ समस्याएं हैं जिससे कि जिन लोगों के ऊपर हम यह प्रयोग कर रहे हैं उन्हें अजीब किस्म के लक्षण आ रहे हैं।


इसीलिए हमने आपसे संपर्क किया है ताकि आप बता सके कि इन लक्षणों का कारण क्या है? 


क्या यह किसी ड्रग इंटरेक्शन के कारण हो रहा है या फार्मूले में उपस्थित घटकों की आपस में किसी तरह की प्रतिक्रिया हो रही है।"


 एक प्रसिद्ध शोध संस्थान के निदेशक ने जब मुझसे संपर्क किया तो मैंने उनसे कहा कि मैं आपकी मदद करूंगा। 


यह संस्थान पिछले कुछ सालों से सिकल सेल एनीमिया के लिए नए फार्मूलेशन की तलाश में था और जब उसने मुझसे संपर्क किया तो मैंने उत्तर भारत के एक पारंपरिक चिकित्सक का पता दिया जो कि सिकल सेल एनीमिया की चिकित्सा में महारत हासिल रखते थे।


 मैंने संस्थान के निदेशक को साफ शब्दों में कहा कि आप पारंपरिक चिकित्सक से सीधी बात करें। अगर वे अपना फार्मूला देने को तैयार होते हैं तो आप उनकी शर्तों को पूछ लें और भारत के बायोडायवर्सिटी एक्ट को ध्यान में रखते हुए उनसे समझौता कर लें। 


काफी मशक्कत के बाद पारंपरिक चिकित्सक इस बात के लिए तैयार हो गए और फिर वैज्ञानिकों और पारंपरिक चिकित्सकों का एक दल इस पर लंबे समय से अनुसंधान करने लगा।


 मैं लगातार इस टीम के संपर्क में रहा और बीच-बीच में मार्ग निर्देशन करता रहा। 


सिकल सेल एनीमिया अभी भी दुनिया में एक ऐसा रोग है जिसकी कोई भी चिकित्सा नहीं है। इनके रोगियों को दुरुस्त रखने के सारे उपाय किए जाते हैं। मगर इसे पूरी तरह से ठीक नहीं किया जा सका है। 


न केवल भारत में बल्कि अफ्रीका में भी सिकल सेल एनीमिया के बहुत सारे मरीज हैं और वे अभिशप्त जिंदगी जीने के लिए मजबूर हैं। उन्हें बार-बार खून बदलवाना पड़ता है और उनकी आयु भी अधिक नहीं होती है।


 दुनिया भर के वैज्ञानिक लंबे समय से एक ऐसे फार्मूले की तलाश में है जो कि इस लाइलाज माने जाने वाले रोग की पूरी तरह से चिकित्सा कर सके। 


मैंने इस बीमारी से संबंधित पारंपरिक चिकित्सकीय ज्ञान का विस्तार से डॉक्यूमेंटेशन किया है और इस पर हजारों घंटों की फिल्में भी बनाई है।


 पर यह देश का पारंपरिक ज्ञान है और इसका उपयोग किसी फार्मूले या किसी उत्पाद के रूप में करने के लिए यह जरूरी है कि जिसका यह ज्ञान है अर्थात पारंपरिक चिकित्सकों से सीधे बात की जाए और उनकी मंजूरी मिलने के बाद ही आगे बढ़ा जाए। 


लंबे समय तक उक्त शोध संस्थान के निदेशक यह बताते रहे कि उनका फार्मूला बड़े अच्छे से काम कर रहा है। उसमें किसी प्रकार का दोष नहीं है। अचानक से उन्होंने जब ऐसा कहा कि इससे लोगों को परेशानी हो रही है तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ।


 मैंने उनकी मदद करने की ठानी। उन्होंने अपने शोध संस्थान के एक जूनियर वैज्ञानिक को मेरे पास भेजा जिन्होंने मुझे पूरी समस्या विस्तार से बताई।


 उन्होंने बताया कि इस फार्मूले को लेने से मिर्गी जैसे लक्षण आ रहे हैं पर यह मिर्गी जैसे लक्षण सभी उम्र के लोगों को नहीं आ रहे हैं। 


केवल युवा लोगों में आ रहे हैं। छोटे बच्चों में बहुत छोटे स्तर पर इस तरह के लक्षण आ रहे हैं। 


इस फार्मूलेशन के घटकों के बारे में मुझे शुरू से जानकारी है इसलिए मुझे फॉर्मूलेशन पर किसी भी प्रकार का शक नहीं हुआ पर मैंने उन वैज्ञानिक से यह पूछा कि इन सब घटकों को कहां से एकत्र किया जाता है?


 उन्होंने बताया कि इन सभी घटकों को छत्तीसगढ़ के घने जंगलों से एकत्र किया जाता है। भले ही यह उत्तर भारत का फार्मूलेशन है पर इसमें प्रयोग की गई सभी जड़ी बूटियां छत्तीसगढ़ की है।


 मैंने उनसे सिलसिलेवार यह पूछा कि इनमें प्रयोग किए जाने वाले 32 प्रकार के घटकों को आप कैसे जंगल से एकत्र करते हैं?


जंगल से इन्हें एकत्र करने के लिए कौन जाता है? कौन यह सुनिश्चित करता है कि असल में सही जड़ी-बूटी ही आ रही है या किसी तरह की मिलावट वाली जड़ी बूटी आ रही है और यह समस्या अभी होनी क्यों शुरू हुई?


पहले से क्यों नहीं ऐसी समस्या हो रही थी?क्या इसे एकत्र करने वाले बदल गए हैं?


 उन वैज्ञानिक महोदय ने सभी प्रश्नों का एक-एक करके जवाब दिया और उन्होंने यह भी बताया कि पहले एक वरिष्ठ वैज्ञानिक जड़ी-बूटियों को इकट्ठा करने के लिए छत्तीसगढ़ के जंगलों में जाते थे।


अब उनकी मृत्यु हो गई है इसलिए मुझे जंगल में जाकर जड़ी-बूटियों को एकत्र करना होता है। मैंने उनके साथ लंबे समय तक काम किया है इसलिए मुझे इस कार्य का अनुभव है।


 मुझे नहीं लगता कि इसमें किसी तरह की गलती हो रही है। आप एक बार फिर से जांच कर सकते हैं। 


मैंने एक-एक करके सभी घटकों के बारे में उनसे जानकारी ली। इस फार्मूलेशन में एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में मुंडी का प्रयोग किया जाता है जिसे कि उत्तर भारत की भाषा में गोरखमुंडी भी कहा जाता है। 


मैंने वैज्ञानिक महोदय से पूछा कि छत्तीसगढ़ में आप जब इसे एकत्र करते हैं तो किस नाम का प्रयोग करते हैं तो उन्होंने कहा कि यहां लोग इसे मुंडी के नाम से जानते हैं और यही नाम लेने से यह बूटी मिल जाती है। 


अब उनकी समस्या कुछ-कुछ सुलझने लगी थी। मैंने उन्हें बताया कि छत्तीसगढ़ में मुंडी के नाम पर या गोरखमुंडी के नाम पर इस बूटी को बहुत कम लोग ही पहचानते हैं ज्यादातर लोग इसे गुडरिया के नाम से पहचानते हैं। 


मुंडी के नाम पर यहां पर एक विशेष प्रकार का वृक्ष होता है। इसको mudhee भी कहा जाता है। मुझे यह शक है कि कहीं गोरखमुंडी की जगह पर इस वृक्ष का प्रयोग तो नहीं किया जा रहा है। 


गोरखमुंडी तो एक तरह का खरपतवार है जो फसलों में उगता है जबकि  मुडही एक वृक्ष है जो कि जंगलों में पाया जाता है।


 वैज्ञानिक महोदय के कान खड़े हो गए और उन्होंने तुरंत ही अपने संपर्कों से बात की। दूसरे दिन वे खेत में गए और वहां उन्होंने जांच की तो पाया कि उन्हें पहले तो गोरखमुंडी दिया जा रहा था पर अब वे मुडही नामक वृक्ष की छाल का उपयोग कर रहे थे। समस्या की जड़ का पता लग गया था। 


उन्होंने तुरंत ही अपने डायरेक्टर महोदय से बात की और अपनी गलती स्वीकार की। जब असली गोरखमुंडी का प्रयोग उस फार्मूले में किया गया तो जो मिर्गी जैसे लक्षण आ रहे थे वे पूरी तरह से समाप्त हो गए और फार्मूलेशन के सारे दोष खत्म हो गए।


 निदेशक महोदय ने मुझे धन्यवाद दिया और कहा कि अभी समस्या पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई है। 


इस फॉर्मूलेशन के साथ एक और समस्या का सामना हम लोगों को करना पड़ रहा है। जब हम इसे छोटी उम्र की बालिकाओं को देते हैं तो उनके मुंह में छाले हो जाते हैं और यह छाले तभी तक रहते हैं जब तक इस दवा का असर रहता है। 


जब इस दवा का असर शरीर से पूरी तरह से खत्म हो जाता है तब छाले अपने आप ठीक हो जाते हैं। इससे यह तो पता चल रहा है कि दवा के कारण ही छाले हो रहे हैं। 


मैंने उनसे कहा कि यह समस्या नई नही है। आप मुझे यह बताएं कि किस मात्रा में आप दवा का प्रयोग कर रहे हैं तो उन्होंने बताया कि हम छोटे बच्चों को एक से 3 ग्राम तक यह दवा देते हैं और जब हम 3 ग्राम से अधिक इस दवा का प्रयोग करते हैं तो छाले की समस्या बहुत अधिक बढ़ जाती है। 


मैंने उनसे कहा कि आप दवा की बहुत अधिक मात्रा दे रहे हैं तो उन्होंने कहा कि पारंपरिक चिकित्सक तो इसे कम मात्रा मानते हैं और कहते हैं कि कम से कम 5 ग्राम की एक खुराक होनी चाहिए। 


मैंने निदेशक महोदय को साफ शब्दों में कहा कि मैं आयुर्वेदिक दवाओं को अधिक मात्रा में प्रयोग करने का पक्षधर नहीं हूँ। 


मैंने अपने अनुभव से यह पाया है कि जो दवाएं 5 ग्राम की मात्रा में असर करती हैं यदि उन्हें 100 mg की बहुत अल्प मात्रा में भी दी जाए तो वे बिना किसी नुकसान के सफलतापूर्वक रोगों को ठीक कर देती है।


 इसलिए मैं हमेशा 100mg से 200 mg के बीच ही आयुर्वेदिक चूर्ण को देने के पक्ष में रहता हूँ। 


निदेशक महोदय ने कहा कि अधिकतर आयुर्वेदिक उत्पादों में यह लिखा रहता है कि 3 से 5 ग्राम चूर्ण एक खुराक के रूप में लिया जाए। 


इस बात का ध्यान नहीं रखा जाता है कि यह कौन सी दवा है और यह कितनी प्रभावी है? 


मैंने कहा कि इसे आयुर्वेद का दोष कहना ठीक नहीं होगा बल्कि आधुनिक आयुर्वेद जो कि व्यवसायिक आयुर्वेद के रूप में जाना जाता है, उसका यह एक बड़ा दोष है। 


निदेशक महोदय ने मेरी बात मानने का फैसला किया और उन्होंने खुराक 3 ग्राम से कम करके 100 mg कर दी।


 कुछ समय बाद भी इसका असर दिखना शुरू हो गया और दवा के प्रयोग से लाभ तो होने लगा पर किसी भी प्रकार के छाले होने खत्म हो गए।


 इस तरह उनकी दोनों बड़ी समस्याओं का समाधान हो गया।


 उन्होंने धन्यवाद ज्ञापित किया।


 सर्वाधिकार सुरक्षित


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