Consultation in Corona Period-8

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Pankaj Oudhia पंकज अवधिया


" सोशल मीडिया से आपकी पोस्ट लगातार गायब होती जा रही है। लगता है किसी को पसंद नहीं है कि आप कोरोना के बारे में विस्तार से लिखें और उसके राज के बारे में पूरी दुनिया को बताएं।" ऐसे संदेश मुझे तब मिले जबकि जनवरी की शुरुआत में चीन में कोरोना तेजी से फैल रहा था एक रहस्यमयी बीमारी के रूप में।


उस समय उसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी। चोरी छुपे सैकड़ों वीडियो चीन से बाहर आ रहे थे और उनमें उन मरीजों की तस्वीरें थी जो अस्पताल में पड़े तड़प रहे थे।


 उनको देखकर साफ लगता था कि यह रहस्यमयी बीमारी नर्वस सिस्टम को प्रभावित करती है।


वीडियो में बताया जा रहा था कि इसका दिमाग पर विशेष प्रभाव पड़ता है।


भारतीय पारंपरिक चिकित्सक भी इन वीडियो को देखकर कह रहे थे कि यह एक घातक बीमारी है और इसका इलाज करना बहुत अधिक कठिन होगा।


 भारतीय पारंपरिक चिकित्सा में पारंपरिक चिकित्सक चेहरे को देखकर भी रोगों का पता लगाते हैं। यह भारत का गूढ पारंपरिक ज्ञान है।


 पारंपरिक चिकित्सकों के पास आधुनिक मशीनें नहीं होती है और चेहरे का अध्ययन करके ठीक-ठीक बीमारी का पता लगा लेते हैं।


 भले ही वे मेटास्टैटिक एडिनोकार्सिनोमा जैसे भारी भरकम शब्दों का प्रयोग नहीं करते हैं पर उनकी अपनी भाषा में वे न केवल बीमारी के बारे में बता देते हैं बल्कि उसकी चिकित्सा भी करते हैं। ऐसा पीढ़ियों से होता आ रहा है।


 पारंपरिक चिकित्सकों के साथ रहते हुए मैंने भी चेहरे से रोगों का पता लगाने का थोड़ा बहुत ज्ञान अर्जित किया है। चीन से आ रहे वीडियो से नर्वस सिस्टम वाली बात साबित हो रही थी पर शायद चीन इस जानकारी को गोपनीय रखना चाहता था और दुनिया से बचाना चाहता था ताकि दुनिया नर्वस सिस्टम की ओर ध्यान न दे कर फेफड़े की तरफ ध्यान दें और इस तरह किसी भी हालत में कोरोना काबू में न आ सके।


 बाद में तो आप जानते ही हैं चीन ने डब्ल्यूएचओ पर दबाव डाला और उसके बाद से फिर कोरोना पर लिखने वाले लोगों पर अंकुश लगा दिया गया और सारे वीडियो डिलीट कर दिए गए।


 विश्व स्वास्थ्य संगठन से जुड़े मेरे एक्सपर्ट मित्र को मैंने समझाते हुए कहा कि यदि आपके घर में डाकू घुसे और घुसने से पहले ही दरवाजे में खड़े चौकीदार को हथियार सहित नष्ट कर दें तो बेडरूम में सो रहे आपको इसकी खबर भी नहीं होगी। इसके बाद डाकू पूरे घर में घुसकर घर पर कब्जा कर लेते हैं फिर बेडरूम तक आते हैं।


जब बेडरूम पर आकर उत्पात मचाते हैं तब आप चौकस होते हैं और कोशिश करते हैं कि कैसे डाकुओं को नियंत्रित किया जाए पर उस समय तक देर हो गई होती है और आपके जान पर बन आती है। डाकू आपको मार डालते हैं।


यही कोरोना के साथ है। कोरोना बड़ा धूर्त और शातिर है। शरीर में प्रवेश करने के बाद यह नर्वस सिस्टम पर अटैक करता है। डब्ल्यूबीसी की संख्या को बहुत कम कर देता है। डब्ल्यूबीसी को कम करने के लिए डब्ल्यूबीसी की फैक्ट्री पर हमला करता है और वहां उत्पादन को बुरी तरह प्रभावित करता है।


उसके बाद शरीर में फैलता है। जब फेफड़े तक पहुंचता है और लक्षण आने शुरू होते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। फेफड़े यानी बेडरूम।


सारी दुनिया कोरोना वायरस रूपी डाकू से बेडरूम में लड़ने की तैयारी कर रही है। कायदे से यह लड़ाई उस फैक्ट्री में होनी चाहिए जहां कोरोनावायरस सबसे पहले  आक्रमण करता है और उस समय किसी भी प्रकार का लक्षण नहीं दिखाई देता है।


विश्व की सभी चिकित्सा पद्धति में फैक्ट्री को बचाने के लिए बहुत से कारगर उपाय है पर हमारा ध्यान फैक्ट्री के बजाय फेफड़ों पर है और वही हम कोरोना की लड़ाई लड़ रहे हैं। यह सही ऐप्रोच नहीं है।


चीन के वैज्ञानिक जनवरी की शुरुआत में जो मरीजों की रिपोर्ट शेयर कर रहे थे उनमें बहुत सी चौंकाने वाली बातें थी जो बताती थी कि यह वायरस अन्य वायरसों से बिल्कुल अलग है। इनमें बहुत से ऐसे लक्षण थे जिन्हें बाद में इंटरनेट से गायब कर दिया गया।


 हमारे देश के पारंपरिक चिकित्सक कहते हैं कि यदि कोरोना की शुरुआत फेफड़े से होती तो इसे चुटकियों में निपटाया जा सकता था पर इसकी शुरुआत मज्जा से होती है इसलिए यह जरूरी है कि ध्यान उसी पर केंद्रित किया जाए और इस लड़ाई को कोरोनावायरस की तरह धूर्तता से ही जीता जाए।


इस आशय के कई ट्वीट मैंने किए और बार-बार विश्व स्वास्थ संगठन को इस ओर ध्यान देने को कहा।


 इनमें से बहुत से ट्वीट न जाने कहां गायब हो गए और बहुत सारे एडिट कर दिए गए।


 मैंने विश्व स्वास्थ संगठन को साफ शब्दों में लिखा कि जब भी कोरोना के इलाज के लिए टीम बनाई जाए तो उसमें एक न्यूरोलॉजिस्ट और एक बोन मैरो एक्सपर्ट जरूर शामिल किया जाए पर दुनिया में कहीं भी इसे नहीं माना गया.


 अब लाखों लोगों के दुनिया से जाने के बाद यह खबरें प्रमुखता से आ रही है कि कोरोनावायरस नर्वस सिस्टम को प्रभावित करता है और कोरोनावायरस के बाद दिमाग को हुए नुकसान की भरपाई करना लगभग असंभव सा है। इसके दूरगामी परिणाम होने वाले हैं।


 स्पेन में जब संभावित औषधियों पर क्लिनिकल ट्रायल शुरू हुए तो वहां के विशेषज्ञों ने मेरे ट्वीट को बतौर रिफरेंस प्रयोग किया।


 ऐसा अमेरिका और दूसरे देशों के विशेषज्ञों ने भी किया पर भारत में लड़ाई फेफड़े तक ही सीमित रही और हम कोरोना को जड़ से खत्म करने की बजाय उसके लक्षणों से लड़ते रहे।


 हमें ट्रीटमेंट करने की हड़बड़ी रही। कोरोना के मोड ऑफ एक्शन को समझने की नहीं।


 मैंने आईसीएमआर को जो पांच फार्मूले सुझाए थे उनमें से सभी नर्वस सिस्टम पर फोकस थे।


उनका फेफड़ों से कम वास्ता था। शायद हमारे वैज्ञानिक उस समय कोरोनावायरस की रणनीति को नहीं समझते थे इसीलिए उन्हें यह कांसेप्ट समझ में नहीं आया होगा।


 फलस्वरुप उन्होंने इन फार्मूलों पर ध्यान नहीं दिया।


नर्वस सिस्टम को मजबूत बनाने के लिए हमारे देश में समृद्ध पारंपरिक चिकित्सकीय ज्ञान है। भोजन से लेकर जड़ी बूटियों तक यह विस्तृत ज्ञान फैला हुआ है। आवश्यकता है तो इस ज्ञान के उपयोग की।


 छत्तीसगढ़ में ही लाखों ऐसे फॉर्मूलेशंस है जो नर्वस सिस्टम को बाहरी आक्रांताओं से बचाते हैं।


मुझे उम्मीद है कि देर सबेर हमारे वैज्ञानिक इस सिद्धांत को समझेंगे और सही मायने में सही तरीके से कोरोना से लड़ने की मुहिम छेड़ेंगे।


सर्वाधिकार सुरक्षित

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