औषधीय फसल सफेद मूसली (क्लोरोफाइटम बोरीविलियेनम) की वर्तमान दशा और दिशा : मेरे अनुभव

औषधीय फसल सफेद मूसली (क्लोरोफाइटम बोरीविलियेनम) की वर्तमान दशा और दिशा : मेरे अनुभव
पंकज अवधिया,
वनौषधी विशेषज्ञरायपुर (छत्तीसगढ़)

अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में बढ़ती मांग और भारतीय वनों में तेजी से विलुप्त होती सफेद मूसली की विभिन्न जातियों को बचाने के उद्देश्य से सबसे पहले राजस्थान के वैज्ञानिकों ने यह पहल की कि सफेद मूसली की वैज्ञानिक खेती को प्रोत्साहित किया जाए। इस पर व्यापक अनुसंधान हुये,विभिन्न वैज्ञानिक रपट छापी गईशोध पत्रा प्रकाशित किये गये और किसानों को प्रेरित किया गया कि वे परंपरागत फसलों को छोड़कर कम समय में अधिक लाभ देने वाली इस औषधीय फसल को अपनाये। वैज्ञानिकों का यह प्रयास इतना अधिक सफल नहीं रहा पर इन प्रयासों से प्रेरित होकर जब महाराष्ट्र के कुछ किसानों ने गुजरात से एकत्रित की गई क्लोरोफाइटम बोरीविलियेनम नामक सफेद मूसली की एक जाति की व्यवसायिक खेती आरंभ की तो अचानक ही सफेद मूसली की क्रांति पूरे देश में फैल गई। सफेद मूसली की दसों प्रजातियाँ देश के विभिन्न भागों में प्राकृतिक रूप से उगती है। ऑस्ट्रेलिया में क्लोरोफाइटकोमोसम को घरों में सजावटी पौधे के रूप में लगाया जाता है। इसकी विभिन्न संकर जातियों का विकास किया गया ताकि बागों और गृह उद्यानों में इसे लगाया जा सके। अमेरिका के संदर्भ साहित्यों में क्लोरोफाइटम की जातियों का विवरण मिलता है। भारत में भी क्लोरोफाइटम की कई जातियाँ उपलब्ध है। विदेशों में जहां सजावटी पौधों के रूप में क्लोरोफाइटम का उपयोग होता है वही संभवत: भारत ही विश्व का एकमात्रा देश है जहां सफेद मूसली का प्रयोग बतौर औषधि होता है। भले ही भारतीय प्राचीन चिकित्सकीय ग्रंथों में इसके विवरण के विषय में वैज्ञानिकों में मतभेद हों पर देश के ग्रामीणों और वनीय अंचलों में रहने वाले निवासी एवं पारंपरिक चिकित्सक सदियों से सफेद मूसली की विभिन्न जातियों का प्रयोग बतौर औषधी करते हैं। संदर्भ ग्रंथ  इस बात का उल्लेख करते हैं कि सफेद मूसली को आकाल के समय बतौर भोजन के स्रोतके रूप में भी उपयोग किया जाता है। सफेद मूसली के पौधों से साग तैयार कर देश के मध्य क्षेत्रा के आदिवासी बड़े चाव से खाते है। इसके पीछे ये मान्यता है कि यह साग बुढ़ापे से बचाती है और शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को विकसित करती है। देश के अलग-अलग क्षेत्रो में यह साग अलग-अलग विधि से तैयार की जाती है। भले ही विधियां अलग-अलग हैं पर उनके औषधीय गुण एक जैसे रहते हैं। भारत में  सजावटी पौधे के रूप में इसका उपयोग नहीं किया जाता है पर इस क्षेत्रा में इसके प्रयोग की व्यापक संभावनायें हैं। देश के विभिन्न भागों में सफेद मूसली के औषधीय गुण और उपयोग पर महारत हासिल रखने वाले पारंपरिक चिकित्सक यह बताते हैं कि  उन्हें यह ज्ञान जंगली जानवरों से प्राप्त हुआ। प्राकृतिक जंगलों में बहुत से जानवर विशेषकर भालू और बंदर सफेद मूसली की विभिन्न प्रजातियों को बड़े चाव से खाते हैं। पारंपरिक चिकित्सकों का मानना है कि वे बतौर भोजन ही इसका प्रयोग नहीं करते हैं। वे इसके औषधीय गुणों के विषय में भी जानते हैं। यही कारण है कि केवल विशेष अवसर और रोग की विशेष अवस्थाओं में ही इसका प्रयोग करते देखे गये हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि प्राकृतिक प्रयोगशाला में कोई भी उत्पाद या वनौषधी दिव्य औषधीय गुणों से परिपूर्ण होती है। इसका मुकाबला करना या इसकी बराबरी करना मानवीय प्रयोगशाला में संभव नहीं है। यही कारण है कि प्राकृतिक प्रयोगशालाओं से प्राप्त वनौषधी सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है और बहुत से वैज्ञानिक इनकी खेती से इनके औषधीय गुणों की कमी की बात कहते हैं। विश्व के विभिन्न हिस्सों में किये गये प्रयोगों में यही दर्शाया गया है कि जब भी वनों से एकत्रित की गई वनौषधियों की खेती की जाती है तो उत्पादन निश्चित ही अधिक होता हैपर औषधीय गुणों में कमी हो जाती है। यही कारण है कि औषधीय फसलों की व्यवसायिक खेती के पक्षधर वैज्ञानिक उन स्थानों पर औषधीय खेती की पैरवी करते हैं जहां के वनों में यह प्राकृतिक रूप से बतौर वनौषधी उगती है। सफेद मूसली के संदर्भ में यह बात लागू नहीं होती है। वनों में जब सफेद मूसली पकती है तब इसकी सारी पत्तियाँ गिर जाती हैं और कंद जमीन के अंदर रह जाते हैं। यही वह उपयुक्त अवस्था है जबकि सफेद मूसली को एकत्रित किया जाना चाहिएपर एक बार पौधे के सूख जाने के बाद वनों के किस क्षेत्रा में जमीन के अंदर मूसली है और किस क्षेत्रा में नहीं है यह जान पाना आदिवासियों के लिए टेड़ी खीर होती है। यही कारण है कि वे उस अवस्था में मूसली को एकत्रित कर लेते हैं जब उसमें पत्तियाँ रहती है। यह सुविधाजनक हो सकता है पर औषधीय गुणों की दृष्टि से यह सही अवस्था नहीं है। यही कारण है कि वनों से एकत्रिात की गई मूसली के प्रयोग के स्थान पर व्यवसायिक खेती से उत्पन्न की गई मूसली के प्रयोग को प्राथमिकता दी जाती है। देश के बहुत से हिस्सों में सफेद मूसली को सुखाने और छीलने के लिए जिस प्रकार के रसायनों के प्रयोग को आदिवासी अंचलों में किया जाता है उससे सफेद मूसली के औषधी गुणों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। छत्तीसगढ़ के बिलासपुर क्षेत्र में आदिवासी सफेद मूसली के कंदों को खाने वाले सोडा से उपचारित कर उसे आसानी से छील लेते हैं। इससे छीलने में आसानी होती है पर न केवल इसका रंग बदल जाता है बल्कि  औषधीय गुणों में भी कमी हो जाती है।
 शुद्ध वनस्पतियों को केवल उनके औषधीय गुणों से पहचाना जाना चाहिए। यह विडम्बना है कि भारतीय बाजारों में वनौषधीय के रंग-रूप पर अच्छा खासा ध्यान दिया जाता है। बहुत अधिक सफेद बड़े आकार की मूसली भले ही दिखने में आकर्षक हो पर यह जरूरी नहीं है कि वह औषधीय गुणों में भी समृद्ध हो। इन रसायनों से उपचारित होने पर ये वनौषधियां  अपना स्वभाविक रंग खो देती हैं और परिणाम स्वरूप अच्छा बाजार भाव नहीं मिल पाता है।
     सफेद मूसली क्रांति ने उन नये किसानों को प्रभावित किया जोकि परंपरागत खेती की फसलों में हो रहे घाटों से परेशान थे। इस लहर ने वैज्ञानिकों को प्रभावित किया कि वे इस पर शोध करें और  इसके नयगुणों का पता लगायें।  सफेद मूसली की खेती भारत तक ही सीमित रहीं पर अनुसंधान विदेशों में भी आरंभ हो गये। शीघ्र ही इसके उपयोगीशोध निष्कर्ष सामने आने लगे। इन प्रयोगों का न केवल सफेद मूसली के जाने माने गुणों को वैज्ञानिक प्रमाणिकता प्रदान की बल्कि इसके नये-नये उपयोगों के विषय में भी बताया। अरब देशों के वैज्ञानिकों ने अपने अनुसंधान में बताया कि सफेद मूसली में सूक्ष्म जीवों की वृद्धि को रोकने की अपूर्व क्षमता है और ऐसे सूक्ष्म जीव जोकि मानव शरीर में नाना प्रकार की बीमारियाँ फैलाते हैं,को सफेद मूसली के सरल प्रयोग से नियंत्रित किया जा सकता है। विदेशों में इसके एंटी ऐजिग गुणों पर शोध हुआ । भारतीय वनों में सफेद मूसली की घटती उपलब्धतता और नये शोध परिणामों ने अचानक ही  इसकी मांग कई गुना बढ़ा दी। इस मांग को देखते हुए सफेद मूसली की खेती कम समय में लखपति बनाने वाली खेती के रूप में उभरने लगी। इस मांग से आदिवासी सर्वथा अछूते रहे। वे नमक के बदले इतने ही वजन की सफेद मूसली जंगलों से लाकर चतुर नव उद्यमियों को देते रहे। वे भी बढ़ी हुई मांग से हतप्रभ थे पर उन्हें असलियत का जरा भी भान नहीं था। बुजुर्ग पारंपरिक चिकित्सक इस बड़ी हुई मांग को जानते थे। आम तौर पर सफेद मूसली का प्राकृतिक एकत्राण चक्रीय विधि से किया जाता है। अर्थात यदि दो साल उत्तर दिशा में एकत्राण हुआ है तो अगले दो सालों तक उस क्षेत्रा से एकत्राण नहीकिया जाता है। इस तरह उस क्षेत्रा की मूसली को बढ़ने का मौका मिल जाता है। किसी भी क्षेत्रा में पूरी तरह से सफेद मूसली का एकत्रीकरण भी नहीं किया जातायू तो सफेद मूसली के बीज बनते हैं पर उनमें अंकुरण बहुत कम होता है। प्राकृतिक रूप से एक कंद से कई कंद बनते हैं और इस तरह एक से कई पौधे विकसित होते हैं किसी क्षेत्रा विशेष से पूरी तरह से सफेद मूसली का एकत्रीकरण उस क्षेत्र से हमेशा के लिए उसे समाप्त कर देता है।  यही कारण है कि कुछ पौधे हर बार छोड़ दिये जाते हैं इस तथ्य को  अच्छी तरह से  देश के पारंपरिक चिकित्सक भली-भांति जानते हैं। आमतौर पर ये पारंपरिक चिकित्सक सफेद मूसली का एकत्रीकरण  केवल औषधि  निर्माण में करते हैं। नव उद्यमियों को इसकी पूर्ति सामान्य आदिवासियों के द्वारा की जाती है। जो वनौषधियों को एकत्रित करते हैं। उन्हें चक्रीय एकत्रीकरण के विषय में कोई जानकारी नहीं है। व्यवसायिक खेती के लिए सफेद मूसली की बढ़ती मांग ने आरंभिक अवस्था में वनों में इसकी घटती उपलब्धतता पर अंकुश्लगाने के बजाय  इस समस्या को और अधिक बढ़ा दिया। यूं तो हमारे देश में इस अनैतिक और अविवेकपूर्ण दोहन को रोकने के लिए कड़े नियम है पर लगता है इनकी अनदेखी की गई।
     जैसा पहले लिखा गया है कि सफेद मूसली  की 10जातियाँ भारत में विभिन्न भागों में पाई जाती है। पर ज्यादातर वैज्ञानिक अनुसंधान क्लोरोफाईटम बोरीविलियेनम पर केन्द्रित रहे। इसके कंद बड़े आकार के होते हैं। उन्हें छीलकर बैचने में आसानी होती है। यही कारण है कि व्यवसायिक खेती के लिए यह प्रजाति ही अपनाई गई। मुंबई के जाने-माने राष्ट्रीय उद्यान जो बोरीबली में स्थित है,में सबसे पहले वैज्ञानिकों को क्लोरोफाइटम की यह प्रजाति मिली इसलिए इसे क्लोरोफाइटम बोरीविलियेनम का नाम दिया गया। वैज्ञानिक दस्तावेज बताते है कि प्राकृतिक रूप से यह मूसली महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों और गुजरात के गीर जंगलों में पाई जाती है। देश के अन्य हिस्सों में विशेषकर मध्य क्षेत्रा में क्लोरोफाईटम टयूबरोसमक्लोरोफाईटम लेक्शमक्लोरोफाईटम अरंडीनेसियम आदि जातियां प्राकृतिक रूप से उगती है। इन जातियों में कई प्रकार की वनस्पतिक भिन्नता होती है पर मुख्यत: कंदों के आकार-प्रकार से ही उन्हें पहचाना जा सकता है। चूंकि इनके कंद क्लोरोफाइटम बोरीविलियेनम की तुलना में छोटे और कम मांसल होते है इसलिए व्यवसायिक खेती के लिए उन्हें उपयुक्त नहीं माना जाता है। इन जातियों की सही वनस्पतिक पहचान के विषय में आम लोगों को जानकारी नहीं होने के कारण चतुर नव उद्यमियों ने इसका लाभ उठाया। उन्होंने क्लोरोफाइटम बोरीविलियेनम के साथ इन दूसरी जातियों की मिलावट आरंभ की। जब नये किसान इन छोटे और पतले कंदों की शिकायत करते तो उन्हें यह बता दिया जाता कि अधिक खाद नहीं मिलने के कारण यह छोटे-छोटे रह गये हैं। पहले इस तरह की मिलावट से10 प्रतिशत तक ही सीमित थी। सफेद मूसली की लहर आरंभ होने के 3-4 वर्षों के अंदरही इस मिलावटा का स्तर80 प्रतिशत तक पहुँच गया। परिणाम स्वरूप  आज भले ही यह कहा आ रहा है कि क्लोरोफाइटम बोरीविलियेनम की ही खेती हो रही है। पर वैज्ञानिक इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि जाने-अनजाने तौर पर ही सही पर देश में 10 से अधिक प्रकार की सफेद मूसली की खेती की जा रही है।
     पौध सामग्री के रूप में क्लोरोफाईटम बोरीविलियेनम की मांग ने नव उद्यमियों को बेपरवाह कर दिया कि वे जैविक विधि से सफेद मूसली की खेती करें। जैसा कि वैज्ञानिक अनुमोदनों में चैताया गया था और हम सभी जानते है कि जैविक खेती से विषमुक्त और औषधी गुणों से परिपूर्ण उत्पाद प्राप्त होते हैं पर उत्पादन में कुछ हद तक कमी हो जाती है। बढ़ी हुई मांग के कारण नव उद्यमियों ने इसकी रसायनिक खेती आरंभ की और कृषि रसायनों की अनुमोदित मात्रा से कई गुना अधिक रसायनों का प्रयोग इस में किया गया जिससे कई गुना अधिक उत्पादन हुआ। कृषि रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से उत्पादन तो निश्चित ही बढ़ा पर उम्मीद से कम। दूसरी ओर उसने वनो से एकत्रित की गई मूसली की गुणवत्ता निम्न दर्जे की कर दी। इस होड़ ने नव डद्यमियों को तरह-तरह के वृद्धि  हारमोनों और नियंत्राकों के प्रयोग की राह भी सुझाई। जिसने भी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर मूसली के गुणों में कमी की । यह विडम्बना ही रही कि देश के कई कृषि अनुसंधान संस्थानों के पास उस समय तक सफेदमूसली की व्यवसायिक खेती के संदर्भ में शोध रिपोर्ट उपलब्ध नहीं थी क्योंकि उन्होंने इस पर ध्यान ही नहीं दिया। नये किसान नव उद्यमियों के कृषि रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग से चिंतित थे और वे सशक्त विकल्पों की तलाश में  थे पर कृषि अनुसंधान संस्थानों से उन्हें निराशा ही हाथ लगी थी । वे प्रचार माध्यमों का सहारा लेना चाहते थे पर उस समय नव उद्यमियों का वर्चस्व ही सब जगह था। नये किसानों ने उनकी मदद से कम गुणवत्ता की मूसली की खेती आरंभ की  और उसमें नव उद्यमियों के परामर्शानुसार कृषि रसायनों का अंधाधुंध प्रयोग आरंभ किया। इस प्रारंभिक मनमानी और वैज्ञानिक अनुमोदनों की अनदेखी ने बहुत पहले ही से देश में सफेद मूसली का भविष्य तय कर दिया था यदि ऐसा कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। यह बड़ी ही विचित्रा बात उस दौर में रही कि अंधाधुंध रसायनों के प्रयोग के बावजूद नव उद्यमी यह दावा करते रहे कि सफेद मूसली का उत्पादन पूर्णत: जैविक विधि से किया जा रहा है। बहुत से उद्यमी इस विधि के नाम पर मूसली के कंदों को कई गुना अधिक दाम पर बेचते रहे। वे निरंकुश बने रहे और नये किसानों का लगातार शोषण होता रहा । आमतौर पर वैज्ञानिक अनुसंधानों में यह बात पाई गई है कि मूसली का गुणन से गुना होता है पर नव उद्यमियों ने यह दावा किया कि पौध सामग्री में उसके दुगने से अधिक गुणन हो सकता है।
     वनों में प्रकृति की प्रयोगशाला में सफेल मूसली निश्चित समय पर उगती है और बिना किसी देखभाल के उसमें पुष्पन होता है और विभिन्न वातावरणीय तनाव से गुजरते हुए उच्च गुणवत्ता की सफेद मूसली का उत्पादन होता है। इसी आधार पर वैज्ञानिकों ने सफेल मूसली की बुआई के लिए विशेष समय निर्धारित किया था। उन्होंने अपने प्रयोग में बताया था कि देर से बोई गई फसल में न केवल उत्पादन कम होता है बल्कि औषधी गुण भी प्रभावित होते हैं। नव उद्यमी और नये किसानों ने इस महत्वपूर्ण शोध निष्कर्ष की अनदेखी की। इस निर्धारित समय अवधि से महीने की अधिक देरी तक इसकी बुआई की जाती रही। यह विडम्बना ही है कि यह आज भी जारी है। सफेद मूसली के दिव्य औषधीय गुणों के विषय में भी यह माना जाता रहा है कि बार-बार प्राकृतिक तनाव देकर प्रकृति कैसे इन वनौषधियों को दिव्य गुणों से परिपूर्ण करती है। यदि यह जानना है तो इन औषधियों को उनके प्राकृतिक आवास में देखना जरूरी है। फिर भी इस तरह की परिस्थितियां खेतो में उत्पन्न करने की आवश्यकता है। बतौर शौधकर्ता प्रकृति के इन प्रयोग को जानने के लिए मैं लगातार वर्षों तक इन प्रयोगशालाओं में जाता रहा और सफेल मूसली की प्राकृतिक खेती देखता रहा। इस अध्ययन के आधार पर मैने कई शौध-आलेख और कृषि उपयोगी लेख लिखे। इनका उद्देश्य किसानों को प्रकृति के प्रयोग के विषय में बताना और समझाना था। मैंने कई प्रकार के जैविक आदानों के विषय में लिखा जिनकी सहायता से सफेद मूसली में औषधीय गुणों से परिपूर्ण किया जा सकता है। पहली बार सफेद मूसली की खेती कर रहे किसान वनों के उन क्षेत्रों से कुछ मिट्टी लेकर अपने खेतों में डाले जहां कि सफेद मूसली प्राकृतिक रूप से उगती है तो निश्चित ही लाभ होता है। मिट्टी में उपस्थित लाभकारी सूक्ष्म जीव खेतों तक पहुंच जाते हैं और मूसली की वृद्धि में अपना महत्वपूर्ण दायित्व निभाते हैंऐसा सूक्ष्म जीव वैज्ञानिकों ने भी माना है । आमतौर पर जौविक आदान गोबर की खाद का ही प्रयोग किया जाता है। सफेद मूसली की जैविक खाद में गोबर और गोमुत्रा दोनों ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। अन्य पारंपरिक फसलों की तरह ही गोबर की खाद का प्रयोग किया जाता है। यह ध्यान रखा जाता है कि गोबर की खाद पूरी तरह से सड़ी हुई हो। अति सड़ी हुई खाद का दीमक बतौर भोजन की तरह  प्रयोग करते हैं। इस खाद के साथ दीमक खेतों में पहुंच जाती है और बाद में सफेद मूसली की फसल को नुकसान पहुचता है। हम सभी जानते हैं कि सड़ी हुई गोबर की खाद प्राप्त करना इतना आसान नहीं है। तब मैं किसानों को सलाह देता हूं कि जितनी मात्रा में भी सड़ी हुई खाद उपलब्ध हो उतनी ही मात्रा में ही उसका प्रयोग करें। अधसड़ी अधकचरी खाद का प्रयोग न करें। गोमूत्रा का प्रयोग सफेद मूसली की व्यवसायिक खेती में न केवल पोषक तत्वों के सत्रोत के रूप में बल्कि कीट नियत्राक के रूप में भी किया जा सकता है। किसानों के  खेतों में लगातार प्रयोग से उनके साथ मिलकर 12 से अधिक प्रकार के ऐसे गोमूत्रा आधारित प्राकृतिक उत्पादों के निर्माण अब तक किया जा चुका है । आज के कृषि रसायनों की तुलना में ये कई गुना बेहतर है। ये न केवल सस्ते हैं बल्कि पर्यावरणीय मित्र भी है।
     इन उत्पादों में ग्रीन स्प्रे का नाम सर्वोपरि है। यह गोमूत्राताजे गोबर या नीम की सहायता से बनाया जाता है। किसान इसे एक महीने में तैयार कर सकते हैं। इस उत्पाद को घोल के रूप में फसल की विभिन्न अवस्थाओं में छिड़का जाता है। आम तौर पर एक सप्ताह के अंतराल में इसे छिड़कने की सलाह दी जाती है। इसकी तेज गंध कीटों को फसल से दूर रखती है जबकि इसके पोषक तत्व मूसली के पौधों की वृद्धि में सकारात्मक प्रभाव डालते हैं।
     यूं तो जैविक खाद में नीम का प्रयोग सामान्य तौर पर किया जाता है। नीम का प्रयोग कीटों और रोगों के नियंत्राण में बहुत ही अधिक उपयोगी पाया गया है। इसके उपयोग की भी कई सीमाएं है। वैज्ञानिक अनुसंधान से पता चलता है कि पान की फसल में नीम आधारित उत्पादों के प्रयोग से कीट नियंत्राण बहुत अच्छे से होता है पर पान की पत्तियां कड़वी हो जाती है। कुछ इसी तरह सफेद मूसली की फसल में भी होता है। नीम आधारित कई उत्पादों के सीधे प्रयोग से सफेद मूसली के कंद कडवाहट से भर जाते हैं। यही कारण है कि किसानों को नीम के विशिष्ट प्रयोग की सलाह दी जाती है। ग्रीन स्प्रे के निर्माण के दौरान जिस तरह नीम की पत्तियों का प्रयोग किया जाता है उससे पत्तियों के हानिकारक गुण कम हो जाते हैं और मूसली के स्वाद पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है। ग्रीन स्प्रे को बड़ी ही साधारण विधि से बनाया जा सकता है। इसके लिए एक बाल्टी ताजा गोबर और उतनी ही मात्रा में ताजा गोमूत्रा लिया जाता है। इन दोनों को मिलाकर उसमें एक पाव नीम की पत्तियां डाल दी जाती है फिर इस घोल को एक महीने तक सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है। बीच-बीच में उसे हिलाया-डुलाया जाता है। एक महीने बाद उस घोल को छान लिया जाता है। इस छनित द्रव्य को एक अनुपात के हिसाब से पानी में घोल कर खड़ी फसल पर छिड़काव किया जाता है। इस ग्रीन स्प्रे में कई प्रकार की वनौषधियों को मिलाकर इसे और अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है।  इस आधारभूत ग्रीन स्प्रे में करीब 20 प्रकार की वनौषधियां अलग-अलग अनुपात में डालकर विभिन्न औषधीय फसल के लिए न केवल नाना प्रकार के उत्पाद बनाये गये हैं बल्कि इन्हें सफलता पूर्वक किसानों के खेतों में परखा भी जा चुका है। बोआई से पहले सफेद मूसली के कंदों को इस तरह के उत्पादों में डूबो कर भी हानिकारक कवकों से बचाया जा सकता है।
     सफेद मूसली की खेती में खेतों के चारों ओर कई प्रकार की वनस्पतियों को लगाकर भी कीटों और रोगों को मुख्य फसल से दूर रखा जा सकता है। आम तौर पर किसानों को गेंदे की फसल लगाने की सलाह दी जाती है। जून-जुलाई में सफेद मूसली की बोआई के साथ ही मेड़ों पर मुख्य फसल के चारों ओर गेंदे की बुआई कर देने से दशहरा और दीपावली के त्यौहार तक उनसे फूल प्राप्त होने लगते हैं जिन्हें बेच कर किसान अत्यधिक आय अर्जित कर सकते हैं। आम तौर पर गेदें के पौधों की कतारे मेडों पर लगाने की सलाह दी जाती है पर किसान आवश्यकतानुसार अधिक कतारे भी लगा सकते हैं।आकर्षकफूल उत्पादित करने वाले संकर जातियों की तुलना में देशी गेंदे के पौधों में रोगों और कीटों को रोकने की अधिक क्षमता होती है। इन देशी प्रजातियों को कम देख-भाल कर आसानी से उगाया जा सकता है। संकर जातियों की तरह ही देशी जातियों का भी अच्छा बाजार है।
     गेंदे के अलावा छत्तीसगढ़ के कई किसानों ने कालमेघ नामक वनस्पति को भी बतौर रक्षक पंक्ति के रूप में पहचाना है। गेंदे की तरह इसे भी जून-जुलाई में लगाया जाता है तथा इसके औषधीय गुण युक्त   बीजों को बेचकर किसान अतिरिक्त आय अर्जित कर सकते हैं जबकि वर्ष भर इसके सूखे पौधों को काढ़े के रूप में उपयोग कर वे अपने परिवार को मलेरिया जैसी घातक बीमारियों से बचा सकते हैं। इससे उनका चिकित्सकीय व्यय काफी घट सकता है। वैज्ञानिक अनुसंधान से पता चलता है कि सफेद मूसली की फसल के आस-पास कई प्रकार के जंगली वृक्षों की उपस्थिति भी फसल की वृद्धि और रक्षा के लिए लाभकारी सिद्ध होती है। मैने अपने प्रयोगों में कर्राभिर्रो और पलाश के वृक्षों की उपस्थिति को सफेद मूसली के खेतों के पास उपयुक्त पाया है। आमतौर पर  यह देखा जाता है कि किसान इन वृक्षों को उखाड़  देते है और उस जगह पर विदेशी वृक्षों का रोपण कर दिया जाता है। ऐसी गलती करने से बचना चाहिए।
     सफेद मूसली की मुख्य फसल के आस-पास मेड़ों पर प्राकृतिक रूप से उगने वाले खरपतवार को बिना प्रभावित किये वैसे ही रहने देने पर वे फसल रक्षा में अपनी अहम भूमिका निभाते हैं। इन खरपतवारों में धतूरा,ऑक और बिच्छू बूटी प्रमुख हैं। आम तौर पर यह खरपतवार सफेद मूसली की फसल से प्रतियोगिता नहीं करते हैं और केवल मेड़ों तक ही सीमित रहते हैं।
     वे खरपतवार जोकि सफेद मूसली की फसल को सीधे तौर पर नुकसान पहुंचाते हैं उनमें साईप्रस प्रजाति की खरपतवार प्रमुख है। इन खरपतवार के भूमिगत भाग जड़े रावण के सिर की तरह पूरे खेत में फैली रहते हैं। एक जगह से उन्हें नष्ठ करने पर वे दूसरी जगह उग आते हैं। छत्तीसगढ़ के उत्तरी क्षेत्रों के किसान इसे बड़ी ही रोचक विधि से नियंत्रिात करते हैं। वे पालतू सूअरों को सफेद मूसली की बुआई के पहले खेतों की तैयारी के दौरान छोड़ देते हैं। ये सूअर जमीन से खोद-खोदकर बढ़े चाव से सुषुप्तावस्था में  पड़े इन खरपतवारों के कंदों को खा जाते है। इससे पालतू सूअर को पौष्टिक भोजन मिल जाता है । वैज्ञानिकों द्वारा विकसित की गई मृदा सौरीकरण विधि को अपनाकर भी किसान इस प्रकार के खरपतवारों से निजात पा सकते हैं। इस विधि में गर्मी के मौसम के दौरान पॉलीथिन की काली झिल्लियों को उन भागों में फैला दिया जाता है जहां कि खरपतवारों की समस्या ज्यादा होती है। ये झिल्लियां तापमान को अवशोषित कर मिट्टी को गरम करती हैं और यह बढ़ा हुआ तापक्रम अंदर पड़े सुषुप्त खरपतवार के भागों को नष्ट कर देता है। इनके  अलावा यह रोगाणुओं और कीटों के अण्डोको भी नष्ठ करता है। इस विधि को और भी उपयोगी बनाने के लिए उपचार से पहले खेत में हल्की सिंचाई कर दी जाती है। पास के अनुसंधान केंद्रों पर जाकर किसान इस विधि को जान और समझ सकते हैं। यूं तो साईप्रस प्रजाति के खरपतवार को नष्ट करने के लिए कई तरह के कृषि रसायन उपलब्ध हैं पर वे किसान जो सफेद मूसली की जैविक खेती करते हैं वे इन रसायनों का प्रयोग नहीं कर पाते। इन किसानों के लिए देशी तकनीकि ही कारगर साबित हो सकती है।
     यूं तो सफेद मूसली की फसल में कीटों का आक्रमण कम ही देखा गया है पर जैसे-जैसे इसका क्षेत्रा बढ़ता जा रहा है वैसे-वैसे कई प्रकार के कीटों के आक्रमण की संभावना बढ़ती जा रही है। इन कीटों में बहुत से एकीट है जोकि आस-पास उग रही फसलों से सफेदमूसली पर आ जाते हैं और उसे नुकसान पहुंचाते हैं। देश के बहुत से हिस्सों में कई तरह के सर्व भक्षी कीटों के आक्रमण की सूचनायें भी आती रहती है। ऊपर बताई गइमृदा सौरीकरण और सुरक्षात्मक वनस्पतियों की सहायता से कीटों के अवांछित प्रवेश को टाला जा सकता है। ग्रीनस्प्रे भी कीटों को दूर रखने में सहायक सिद्ध हो सकता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि जैविक आदानों की सहायता से वैज्ञानिक अभी से अनुसंधान कर ऐसे जैविक कीट नाशकों का विकास करें जो आने वाले समय में सशक्त हथियार साबित हों। छत्तीसगढ़ के किसानों के खेतों में किये गये प्रयोगों से मैंने पाया है कि समय-समय पर मित्रा कीट खेतों में छोड़कर भी हानिकारक कीटों की संख्या पर अंकुश लगाया जा सकता है। उन चुने हुए स्थानों पर जहां दीमक का बहुत अधिक आक्रमण होता है बहुत से किसान क्लोरोपाईरीफास नामक कृषि रसायन का उपयोकरते हैं। यह रसायन जैविक कृषि के लिए उपयुक्त नहीं है पर अंतिम विकल्प के रूप में फसल से दूर चुने हुई भागों में इसका प्रयोग किया जा सकता है। यदि वैज्ञानिकों की माने तो दीमक से सुरक्षा का सबसे अच्छा उपाय स्थान-स्थान पर दीमक को नष्ट करने के बजाय दीमक की बॉबी में काफी अंदर रह रही रानी को नष्ट करना जरूरी है। इस रानी को नष्ट करके दीमक पर नियंत्राण पाया जा सकता है। औषधीय और सगंध फसलों की व्यवसायिक खेती कर रहे किसानों को दीमक नियंत्राण का यह प्रभावी उपाय बनाना चाहिए।
     आम तौर पर यह देखा जाता है कि बुआई से पहले कंदों के उपचार के लिए किसान उन कवक नाशियों का उपयोग करते हैं जिन का प्रयोग आम तौर पर खाद्यान्न फसल के लिए किया जाता है। जहां तक संभव हो फसल की किसी भी अवस्था में कृत्रिाम कृषि रसायनों के प्रयोग से बचना चाहिए। इसके लिए गोमूत्रा जैसे जैविक आदानों का प्रयोग सफलतापूर्वक किया जा सकता है। बहुत से किसान घी और शहद की समान मात्रा से सफेद मूसली के कंदों को उपचारित करते हैं। यह विधि खर्चीली है पर काफी हद तक प्रभावी है। बहुत अधिक वर्षा होने की स्थिति में कई बार पानी जमा होने पर बतौर सुरक्षात्मक उपाय किसान कवक नाशियों का प्रयोग कर बैठते हैं। ये कवकनाशी सक्षम ढंग से  रोगों से फसल की रक्षा  करते हैं। इसी विपरीत परिस्थितियों में किसान भाई चाहे तो इनका प्रयोग कर सकते हैं। पानी के जमाव के कारण फसलों की वृद्धि पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है ऐसी विपरीत परिस्थितियों में ग्रीनस्प्रे जैसे जैविक आदानों का प्रयोग फसल के लिए बहुत अधिक मददगार साबित होता है।
     आमतौर पर यह प्रचारित किया जाता है कि सफेद मूसली की खेती किसी भी प्रकार की जमीन में सफलतापूर्वक की जा सकती हैयह सत्य नहीं है । कोई भी पौधा किसी भी जमीन में उग तो सकता है पर अच्छा उत्पादन नहीं दे सकता। आम तौर पर प्राकृतिक परिस्थितियों में सफेद मूसली रेतीली मिट्टी में होती है। चूंकि यह कंदीय फसल है अत: कड़ी मिट्टी में इसकी खेती करने से कंद लंबे और पतले कंद बनते हैं क्योंकि पौधों की सारी ऊर्जा मिट्टी को भेदने में खत्म हो जाती है। काली मिट्टी में उत्पादन भी कम देखा गया है। अत: किसानों को चाहिए कि वे सफेद मूसली की खेती का मन बनाने से पहले मिट्टी के चयन पर विशेष ध्यान दें। यह भी तो ध्यान रखना चाहिए कि सफेद मूसली फसल वृद्धि की किसी भी अवस्था में पानी का जरा भी जमाव सहन नहीं कर सकती है। अत: ढालदार जमीन का चुनाव करना चाहिए। यदि खेत समतल हैं तो जल निकलने की व्यवस्था अच्छी होना चाहिए। प्राकृतिक परिस्थितियों में सफेद मूसली बिना किसी सिंचाई के उग जाती है। यदि अच्छी वर्षा हो तो बिना किसी सिंचाई के इसकी सफलतापूर्वक खेती की जा सकती है। परन्तु फिर भी चूंकि यह महंगी फसल है इसलिए सिंचाई के वैकल्पिक उपायों का प्रबंध करके रखना चाहिए।
     आईये अब उन कारणों की चर्चा करें जिनने सफेद मूसली को एक असफल फसल की श्रेणी में ला खड़ा किया है। देश में सफेद मूसली की लहर आने के बाद इसकी खेती पर तो सभी ने ध्यान दिया पर इसके प्रसंस्करण और विपण्ान पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। ज्यादातर किसान सफेद मूसली का उत्पादन कर उसे पौध सामग्री के रूप में बेचकर धन अर्जित करने की राह पर रहें । पहले पहल पौध सामग्री की कमी के कारण उन्हें अच्छे दाम मिलं और अच्छी गुण्ावत्ता के साथ ही कम गुणवत्ता की सफेद मूसली को भी अच्छे दामों की बेचा गया । कुछ वर्षों में जब इस फसल का क्षेत्रा बढ़ा तो सभी के पास पर्याप्त मात्राा में पौध सामग्री उपलब्ध हो गई। परिणामस्वरूप पौध सामग्री का बाजार खत्म हो गया। आरंभ में जब सफेद मूसली के प्रचार का दायित्व नव उद्यमियों के पास था तब उन्होंने इस फसल को बढ़ा-चढ़ाकर नये किसानों के सामने प्रस्तुत किया। 400 रूप्रति कि0ग्राकी दर से बिकने वाली सफेदमूसली के सूखे कंदों की कीमत राष्ट्रीय बाजारों में हजार से हजार रूप्रति कि0ग्राबताई गई। किसानों को यह भी सब्जबाग दिखाये गये कि अरब देशों में इससे दुगने से अधिक कीमत प्राप्त हो सकती है। कई प्रकार के कपोल कल्पित दावे  औषधि निर्माण कंपनियों एवं उनके उत्पादों के विषय में भ्रामक जानकारी दी गई।
     यह भी बताया गया कि सफेद मूसली का प्रयोग भोज्य पदार्थों के रूप में निकट भविष्य में होने वाला है। किसान नव उद्यमियों की बातों में आ गये। पौध सामग्री के बाजार ने उन्हें कुछ समय तक तो अत्यधिक लाभ दिलवाया पर जब सूखी मूसली की बात आई तो असली खरीददारों के पास पहुंचकर उन्हें वास्तविकता का भान हुआ। 400 रूसे 500 रूप्रति कि0ग्राका मूल्य सुनकर वे इसे अपना शोषण समझ बैठे। वे इस इंतजार में सफेद मूसली की खेती करते रहे कि आगे के कुछ वर्षों में इसकी मांग फिर से बढेग़ी और उन्हें से हजार रू0प्रति किग्राकी दर मिल सकेंगी। बहुत से किसानों ने जब वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों की सलाह ली तो पता चला कि उन्हें छला गया है। सचमुच सफेद मूसली की कीमत इतनी अधिक नहीं है। संपन्न किसानों ने पौध सामग्री के व्यापार को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से देश के उत्तरी-पूर्वी और उत्तरी  इलाकों में बाजार ढूंढने का प्रयास किया जहां के किसान इस फसल के विषय में कम जानते थे। उनकी मेहनत रंग लाई और देश के मध्य क्षेत्रा से शुरू हुआ सफेद मूसली का व्यापार एक बार फिर उसी रूप में उत्तर-पूर्वी और उत्तरी क्षेत्रा में फैल गया। आज भी पौध सामग्री के रूप में इन क्षेत्राों के किसान अधिक कीमत पर मूसली की खरीदी कर रहे हैंजबकि देश के मध्य क्षेत्रा के किसान अति उत्पादन के कारण कर्ज के भारी बोझ में डूबते चले जा रहे हैं। कई किसानों ने तो 2-3 वर्षों से फसल को वैसे ही छोड़ दिया है। इस विपरीत परिस्थिति के शिकार छोटे किसान अधिक हैं। जिन्होंने अपना सब कुछ बेच कर इस मंहगी फसल में पैसा लगाया। चूंकि राष्ट्रीय स्तर पर कई प्रकार की सबसीडी इस फसल पर उपलब्ध है इसलिए संपन्न किसानों ने गलत तरीके से इस सबसीडी का नाजायज लाभ उठाया। कम मात्रा में मूसली की खेती की गई और यह प्रदर्शित किर दिया गया कि अधिक मात्रा में खेती हुई है। इस तरह कम कीमत में सबसीड़ी की सहायता से मूसली की खेती कर ली गई। अब जब मूसली की बिक्री नहीं हो रही है तब भी ये संपन्न किसान घाटे की स्थिति में नहीं है। देश में सफेद मूसली की लहर आरंभ हुई तब विदेशों में इसकी उतनी अधिक मांग नहीं थी जितनी की प्रचारित की गई थी। आज विश्व के बहुत से देश सफेद मूसली के दिव्य औषधी गुणों को जानकर इसकी खेती करने और विभिन्न उत्पाद बनाने की योजना बना रहे हैं। यह समाचार सुखदाई भी है और दुखदाई भी क्योंकि ज्यादातर बड़े  प्रतिष्ठान कम मात्रा में सफेद मूसली की पौध सामग्री लेकर उसे अपने देश में प्रवर्धित करना चाहते हैं ताकि बड़े पैमाने पर खेती हो सके। वे अपने खेत से उत्पादित सफेद मूसली का प्रयोग विभिन्न उत्पादों के निर्माण में करना चाहते हैं वे सफेद मूसली के लिए भारतीय किसानों पर निर्भर नहीं रहना चाहते हैं। सफेद मूसली की खेती और इसके औषधीय गुणों के बारे में जितना ज्ञान भारत में है  उतना पूरे विश्व में नहीं है। इसके बावजूद विश्व के बाकी देश भारत को इस क्षेत्रा में पीछे छोड़ने की योजना बना रहे हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि हमारे योजनाकार ऐसी योजनाएं बनाये ताकि यह एकाधिकार बना रहे और किसान को अधिक से अधिक लाभ हो सके। इसमें शीघ्रता करने की आवश्यकता है क्योंकि हमारी सोच से भी अधिक गति से विदेशों में सफेद मूसली के विकास का कार्य आरंभ हो चुका है। देशी बाजार में सूखी सफेद मूसली की मांग उसी तरह बरकरार है। बहुत सी आयुर्वेदिक दवाई निर्मात्रा संस्थाये सफेद मूसली की खरीद करती है पर यह विडम्बना ही है कि वे मूसली के नाम पर क्लोरोफाइटम बोरीविलियेनम की खरीद ही नहीं करते है। अन्य प्रजातियों की मूसली की ही खरीद होती है। इन सब को सफेद मूसली के नाम से खरीदा जाता है। आज भी ये संस्थायें जंगलों से एकत्रिात की गई मूसली पर निर्भर है। उन्हें इस मूसली की अधिक कीमत नहीं देनी पड़ती है। चूंकि खेतों में तैयार मूसली में लागत व्यय भी जुड़ा हुआ है इसलिए यह बहुत अधिक मंहगी पड़ती है। कुछ संस्थायें ऐसी भी है जोकि केवल क्लोरोफाइटम बोरीविलियेनम की ही खरीदी करती है। पर वे जौविक विधि से तैयार मूसली चाहते हैं। किसानों के पास उपलब्ध मिलावटी और रसायन युक्त उत्पाद के विषय में उन्हें जानकारी है इसलिए वे किसानों से खरीदने की बजाय सीधें खेती से आवश्यकतानुसार कंद प्राप्त कर लेते हैं। इन सब के कारण सफेद मूसली के उत्पादकों को इस फसल की सही कीमत नहीं मिल पाती है। तो क्या अब भी ऐसे उपाय है हमारे पास जिनकी सहायता से इस फसल को सही मायने में लाभदायक बनाया जा सकता हैबहुत बड़े सपने न देख कर ऐसे परंपरागत फसलों से थोड़ा अधिक लाभदाई फसल मानकर इसकी खेती कर रहे संतोषी किसान सफेद मूसली की बाजार में मिलने वाली कीमत से संतुष्ट नजर आते हैं। वे तो 200 से 250 रूपये प्रति कि0ग्रासूखी मूसली की दर से भी बेची गई मूसली को लाभ दिलाने वाली मानते हैं। यह काफी हद  तक सही भी है।यदि आपने अच्छी गुणवत्ता की पौध सामग्री कम मूल्य में खरीदी हो और जैविक खाद से कम लागत में फसल प्राप्त की हो तो निश्चित ही ये कम दर भी आपको अधिक लाभ दिलवा सकती है। परंपरागत फसलों के वर्षों से अनुभवी किसान चूंकि खेती के गुर को अधिक जानते हैं इसलिए उन्हें ऐसी नई फसल उगाने में अधिक परेशानी नहीं होती। वे कृषि के परंपरागत उपायों को सफेद मूसली की खेती में उपयोग करते रहे। इस तरह उन्हें अधिक उत्पादन भी मिला और अधिक गुणवत्ता की मूसली भी। बहुत से किसानों ने तो मूसली के कई व्यंजन बनाना भी आरंभ कर दिये और स्वयं के उपयोग के लिए इसका प्रयोग आरंभ कर दिया। इन व्यंजनों और औषधी उत्पादों की सहायता से ऐसे किसानों ने अपने आस-पास ही सफेद मूसली का छोटा ही सही पर सशक्त बाजार तैयार किया। इससे उन्हें फसल को बचने में मुश्किलों का सामना नहीं करना पड़ा। सफेद मूसली से केवल तीन महीनों में लखपति बनने के सपने से अभिभूत होकर जो नव धनाडय इसकी खेती में उतरे उन्हें खेती की आधारभूत सिद्धांतों की जानकारी न होने के कारण बहुत हानि उठानी पड़ी। उन्हें न केवल जमीन की अधिक कीमत देनी पड़ी बल्कि मंहगी जमीन और मंहगे रसायनों का भी प्रबंध करना पड़ा। उनके लिए यह फसल बहुत मंहगी साबित हुई।
     जहां एक ओर आज सफेद मूसली की फसल को नये रूप में अपनाया जा रहा है वही दूसरी ओर पहले से इसकी खेती आरंभ कर चुके किसान आत्महत्या का मन बना रहे हैं। ऐसी विकट परिस्थिति में सबसे अहम प्रश्न यह है कि क्या सफेद मूसली के डूबते जहाज को बचाया जा सकता हैइसका उत्तर सकारात्मक है। आवश्यकता है तो बस समंवित प्रयासों और दृढ़ इच्छाशक्ति की । आज जितना खर्च हमारे वैज्ञानिक सफेद मूसली की खेती में अनुसंधान कर रहे हैं इतना समयश्रम और धन इसके प्रसंस्करण और विपणन की संभावनाओं को तलाशने में लगाये तो किसानों को बहुत मदद मिल सकती है। विदेशों में न्यूट्रासूटिकल के रूप में मूसली के प्रयोग की संभावनाओं पर शोध चल रहा है और मूसली आधारित स्वास्थ भरे नाश्तों,पशु चारों आदि का विकास किया जा रहा है । ऐसे ही प्रयास भारतीय परिपेक्ष्य में भी आवश्यक है। सबसे पहले तो यह आवश्यक है कि किसान पहले की गई गलतियों को मानते हुए जैविक और रायायनिक तरीकों से उत्पादित की गई मूसली को स्वयं ही दो भागों में विभाजित करें  ताकि दोनों ही तरह के उत्पादों को उचित कीमत दिलवाई जा सके। वैज्ञानिकों की मदद सेक्लोरोफाइटम बोरीविलियेनम और अन्य जातियों की देश में मिलावट की पहचान भी जरूरी है। मिलावटी उत्पाद और शुद्ध उत्पाद में अंतर सामने रखना निहायत जरूरी हैं। आज भी देश के बढ़े हिस्से में सरकारी स्तर पर विभिन्न आयुर्वेदिक एवं यूनानी दवाखानों के लिए सफेद मूसली की खरीदी होती है। सफेद मूसली के बाजार की तलाश में भटक रहे किसान इन स्थानों पर बाजार की संभावनायें तलाश सकते हैं। इस क्षेत्रा में हमारे योजनाकार सामने आकर ऐसी योजनायें बना सकते हैं जिससे कि मध्यम और छोटे किसानों से ही इन दवाखानों के लिए मूसली की खरीद की जाए। योजनाकार मूसली के नये उत्पाद के विकास में जुटे शोधकर्ताओं को प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न इनामी योजनायें घोषित कर सकते हैं। जंगलों से आज भी एकत्रित की जा रही सफेद मूसली पर अविलंब प्रतिबंध लगाये जाने की आवश्यकता है ताकि मूसली की प्राकृतिक आबादी को बचाया जा सके। यह प्रबंध किसानों को अधिक बाजार प्रदान करेंगा। आज भी विभिन्न कृषि जलवायु के अनुसार अलग-अलग आवश्यकतानुसार सफेद मूसली की उन्नत किस्में उपलब्ध नहीं है। उन्नत किस्मों के विकास की आवश्यकता है।यह भी आवश्यक है कि अधिक उत्पादन और अच्छी गुणवत्ता वाली किस्म ही किसानों को दी जाए। विदेशी निवेशकों को सफेद मूसली के विषय में विस्तार से जानकारी देकर उन्हें मूसली खरीदने के लिए प्रेरित किया जाए। जितनी सफेद मूसली की जातियों के विषय में हम जानते हैं उससे कहीं अधिक हमारे जंगलों में प्राकृतिक रूप से उग रही है। विस्तृत वानस्पतिक सर्वेक्षणों के माध्यम से सफेद मूसली की इन जातियों की पहचान कर राष्ट्रीय स्तर पर जीन बैंक की स्थापना की जाए। चूंकि सफेद मूसली का एकाधिकार हमारे पास सदियों से रहा है अत: इस एकाधिकार को बनाये रखने के लिए ठोस कदम उठाये जाए।  ताकि वैश्वीकरण के युग में किसानों के हितों की रक्षा हो सके।

For your queries on Indian Medicinal and Aromatic crops you can write to Pankaj Oudhia at pankajoudhia@gmail.com  Please write "Consultation" as subject.
    

Comments

Popular posts from this blog

कैंसर में कामराज, भोजराज और तेजराज, Paclitaxel के साथ प्रयोग करने से आयें बाज

गुलसकरी के साथ प्रयोग की जाने वाली अमरकंटक की जड़ी-बूटियाँ:कुछ उपयोगी कड़ियाँ

भटवास का प्रयोग - किडनी के रोगों (Diseases of Kidneys) की पारम्परिक चिकित्सा (Traditional Healing)