Consultation in Corona Period-156

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Pankaj Oudhia पंकज अवधिया


"हमारी संस्था सांपों के ऊपर काम कर रही है और सपेरे समुदाय के लोग हमारी संस्था से जुड़े हुए हैं हजारों की संख्या में। हमने देखा है कि पिछली कई पीढ़ियों से सपेरे समुदाय के लोग किडनी के रोगों से मर रहे हैं। उनके समुदाय में किडनी के रोगों से मरने वालों की संख्या इतनी अधिक है कि हमें इस पर एक शोध परियोजना शुरू करनी पड़ी यह जानने के लिए कि इस समुदाय में किडनी की समस्या क्यों हो रही है?

 हमने सभी केसों का विस्तार से अध्ययन किया है और एक रिपोर्ट तैयार की है। हम आपको यह रिपोर्ट भेज रहे हैं। इस रिपोर्ट को चिकित्सकों ने मिलकर तैयार किया है जिन्होंने उन सपेरों की चिकित्सा की और उन्हें अपनी आंखों से मौत के मुंह में जाते हुए देखा। 

आपने सांपों से संबंधित पारंपरिक चिकित्सकीय ज्ञान के बारे में बहुत कुछ लिखा है और इन सपेरों पर कई घंटों की फिल्में बनाई हैं। हमें उम्मीद है कि आप हमारी मदद करेंगे और इस विकट समस्या से सपेरे समुदाय को बाहर निकालने में मदद करेंगे। 

हमारा अध्ययन कहता है कि सपेरे समुदाय के लोग एक विशेष तरह की शराब का प्रयोग करते हैं जिसका लंबे समय तक प्रयोग करने से हो सकता है उन्हें किडनी की समस्या होती हो पर हमने यह समस्या उन लोगों में भी देखी जो कि इस शराब का उपयोग नहीं करते हैं।

 हमें पहले उन जंगली मशरूमों पर भी शक हुआ जिनका उपयोग में बरसात के दिनों में करते हैं पर जब हमने उनका वैज्ञानिक विश्लेषण किया तो हमें पता चला कि ये जंगली मशरूम उन्हें नुकसान करने की बजाय उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बहुत बढ़ा देते हैं जिससे कि वे बहुत कम बीमार पड़ते हैं और पारंपरिक के साथ-साथ आधुनिक दवाओं पर भी उनकी निर्भरता बहुत कम हो जाती है। 

किडनी के रोग का पता सबसे पहले 55 से 60 वर्ष के सपेरों को लगता है और उसके बाद फिर धीरे-धीरे उनकी समस्या बढ़ती जाती है। हमने बहुत सारे अस्पतालों से भी संपर्क किया और वहां लंबे समय तक इन बीमार सपेरों को रखा पर किसी भी तरह से उनकी किडनी सामान्य नहीं हुई और धीरे-धीरे उनकी मृत्यु होती गई।" 

दिल्ली की एक गैर सरकारी संस्था ने मुझसे परामर्श के लिए समय मांगा और जब मैंने उनसे बात की तो उन्होंने सपेरों की समस्या के बारे में बताया।

 जब मैंने कहा कि मैं उनकी मदद करूंगा तो उन्होंने कहा कि हमारी एक टीम कुछ ही दिनों में उड़ीसा की ओर जा रही है जहां पर एक ही गांव के कई सपेरे परिवार को किडनी की समस्या है और यह उसी तरह की समस्या है जिसके बारे में आप को भेजी गई रिपोर्ट में बताया गया है। 

उन्होंने पूछा कि क्या आप हमारे साथ चलना पसंद करेंगे? जब मैंने हामी भरी तो उन्होंने कहा कि 2 दिनों के अंदर आपके पास बोलेरो पहुंच जाएगी तो आपको लेकर उड़ीसा के उस गांव पहुंचेगी जहां पर हम लोग पहले से मौजूद रहेंगे। 

निश्चित समय और तारीख को जब मैं उस गांव पहुंचा तो मैंने अपने साथ जड़ी बूटियों का मिश्रण रख लिया था। वहां किडनी प्रभावित लोगों के पैरों में जब मैंने जड़ी बूटियों का लेप लगाया और उसकी प्रतिक्रिया देखने लगा तो मुझे अजीब तरह के लक्षण दिखाई दिए। इस तरह के लक्षण विशेष वनस्पतियों के प्रयोग से आते हैं। 

इन लक्षणों के आधार पर मैंने बाद में अपने डेटाबेस से 75 ऐसी वनस्पतियों का पता लगाया जिनका कि लंबे समय तक उपयोग करने से किडनी खराब होने लग जाती है अर्थात इनमें नेफ्रोटॉक्सिक प्रॉपर्टीज होती है पर यह एक धीमे जहर के रूप में काम करती हैं और जब कम से कम 10 से 15 साल तक इसका उपयोग किया जाता है लगातार बिना किसी अंतराल के तब किडनी खराब होने का क्रम शुरू होता है और एक बार जब शुरू हो जाता है तो फिर वापसी की राह बहुत कठिन हो जाती है। 

इन वनस्पतियों के प्रयोग से न केवल किडनी बल्कि शरीर के दूसरे अंग भी प्रभावित होते हैं। पर इनका उपयोग करने वालों को इस बात का भान भी नहीं होता है कि उनकी स्वास्थ समस्या का कारण उनके द्वारा उपयोग की जा रही वनस्पति है।

 गांव में मैंने उनके द्वारा ली जा रही वनस्पतियों के बारे में विस्तार से जानकारी प्राप्त की पर यह जानकर आश्चर्य हुआ कि सभी लोग एक ही तरह की वनस्पति का प्रयोग नहीं कर रहे थे और बहुत सारे लोग अपने द्वारा उपयोग की जा रही वनस्पतियों के बारे में ठीक-ठीक जानकारी भी नहीं दे पा रहे थे।

 वे स्थानीय नामों का प्रयोग कर रहे थे जबकि मुझे स्थानीय नामों के बारे में उस समय इतनी जानकारी नहीं थी। वापस लौट कर मैंने अगले सप्ताह फिर से उड़ीसा जाने का की योजना बनाई। 

इस बार मैं उन 75 वनस्पतियों के चित्रों के साथ गया और फिर उन चित्रों को उन प्रभावित सपेरों के सामने रखा और उनसे कहा कि वे इस बात की पुष्टि करें कि वे लंबे समय से इनमें से कौन सी वनस्पति का प्रयोग कर रहे हैं। यह प्रयोग भी अधिक सफल नहीं रहा। कोई ऐसी वनस्पति नहीं मिली जिसका प्रयोग सभी लोग कर रहे थे। 

मैंने योजना बनाई कि मैं छत्तीसगढ़ के सपेरे समुदाय के गुरु से मिलूंगा और उन्हें समस्या के बारे में बताऊंगा। हो सकता है उनसे किसी तरह की कोई जानकारी मिले। जब मैं सपेरों के गुरुजी के पास पहुंचा तो उन्होंने मेरा स्वागत किया। वे पिछले 30 वर्षों से मुझे जानते हैं और हमारा सुख-दुख का संबंध रहा है। 

जब मैंने इसके बारे में उन्हें सूचित किया और बताया कि कैसे बड़े पैमाने पर पूरे सपेरे समुदाय के लोग ही इस विशेष समस्या से प्रभावित हो रहे हैं तो उन्होंने बताया कि छत्तीसगढ़ के सपेरे समुदाय के लोगों को इस तरह की समस्या नहीं होती है। केवल आसपास के राज्यों में रहने वाले सपेरे समुदाय के लोगों को ही ऐसी समस्या हो रही है। 

उन्होंने बताया कि सपेरे समुदाय के लोग सांप के विष से बचने के लिए आजीवन एक विशेष प्रकार के नुस्खे का प्रयोग करते हैं जिसके बारे में वे किसी को भी जानकारी नहीं देते हैं अर्थात समुदाय के बाहर किसी को जानकारी नहीं देते हैं। उन्होंने संभावना जताई कि इसीलिए आपको इस नुस्खे के बारे में उड़ीसा के उस गांव में नहीं बताया गया।

 उन्होंने आगे बताया कि छत्तीसगढ़ के सपेरे भी इस नुस्खे का प्रयोग करते थे पर जब उन्हें इस बात का एहसास हुआ कि इस नुस्खे के प्रयोग से सांपों से तो रक्षा होती है पर किडनी को स्थाई रूप से हानि होती है तो धीरे-धीरे उन्होंने इसका प्रयोग करना बंद कर दिया। इसका प्रयोग बंद करने से उन्हें अपने समुदाय में बहुत विरोध का सामना करना पड़ा। फिर भी ये लोग डटे रहे और अब वे पूरी तरह से इस नुस्खे का उपयोग नहीं करते हैं। 

उन्होंने आगे बताया कि उनके बाप दादा किडनी के रोगों से ही मरे हैं और अंतिम समय तक उन्हें यह नहीं पता चल सका कि यह किडनी का रोग उन्हें क्यों हुआ। मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और उनसे पूछा कि क्या आपको उस नुस्खे के बारे में पूरी-पूरी जानकारी है? उसमें किस तरह के घटक डाले जाते हैं और उस नुस्खे को कैसे बनाया जाता है? उन्होंने क्रमवार तरीके से सभी घटकों के बारे में बताया और कहा कि यह नुस्खा सांपों के विरुद्ध बेहद कारगर है। यही कारण है कि सपेरे बिना किसी डर के सांपों को पकड़ लेते हैं और अगर सांप डस भी ले तो किसी भी प्रकार की चिंता नहीं करते हैं। 

नुस्खे में 55 से अधिक घटक थे और ऐसा लगता था कि उस नुस्खे को बहुत सोच समझकर लंबे अनुसंधान के बाद विकसित किया गया है। यह उनका पारंपरिक ज्ञान था जो कि परंपरा से चला आ रहा था और हर नई पीढ़ी ने उस नुस्खे में सुधार किया था। उसे और अधिक शक्तिशाली बनाया था। 

मुझे बताया गया है कि इस नुस्खे का प्रयोग न केवल पुरुष सदस्य बल्कि महिला सदस्य और किशोर भी करते हैं। बच्चों को इस नुस्खे की के उपयोग की मनाही है। नुस्खे के घटकों का विस्तार से अध्ययन करने के बाद नुस्खे का एक बड़ा दोष सामने आ गया। 

मैंने दिल्ली की संस्था के सदस्यों से संपर्क किया और मैंने उनसे कहा कि समस्या का मूल कारण पता चल गया है और अगर वे मुझसे मिलने रायपुर आये तो मैं इस दोष का पूरी तरह से खुलासा कर सकता हूं। 

जब उनसे मुलाकात हुई तो मैंने उन्हें विस्तार से बताया कि इस नुस्खे में इसरमूल नामक एक वनस्पति का प्रयोग किया गया है। इस वनस्पति का प्रयोग सांपों से संबंधित समस्याओं के लिए पीढ़ियों से हो रहा है। सांपों के विरुद्ध इसका प्रयोग न केवल भारत में होता है बल्कि चीन और आसपास के दूसरे देशों में भी होता है। भारत के पारंपरिक चिकित्सक इस बात को पीढ़ियों से जानते हैं कि इस इसरमूल का प्रयोग बहुत संभलकर करना चाहिए। यह एक बहुत ही खतरनाक जहर है जो कि किडनी पर सीधा असर डालता है और उसकी कार्य क्षमता को पूरी तरह से समाप्त कर देता है। 

आधुनिक विज्ञान भी इस बात को मानता है और साफ शब्दों में कहता है कि इसरमूल का प्रयोग किडनी के रोगियों को कभी भी नहीं करना चाहिए। सपेरे समुदाय के लोग जिस नुस्खे का प्रयोग कर रहे हैं उसमें इसरमूल को दूसरे घटकों के साथ प्रयोग किया गया है। यही कारण है कि इसरमूल का उतना अधिक प्रभाव उनके शरीर पर तुरंत नहीं पड़ता है पर लंबे समय तक, लंबे समय अर्थात 10 से भी अधिक सालों तक लगातार इसका प्रयोग करने से धीरे-धीरे किडनी प्रभावित होनी शुरू हो जाती हैं। एक बार किडनी रोग का पता चलने से तुरंत बाद ही उनकी जान पर नहीं बनाती है बल्कि धीरे-धीरे उनकी समस्या बढ़ती जाती है। 

उन्हें इस बात का बिल्कुल भी एहसास नहीं होता है कि उनके द्वारा लिए जा रहे परंपरागत नुस्खे के कारण उनकी किडनी पर बुरा असर पड़ा है इसलिए वे किडनी रोग हो जाने के बाद भी बिना किसी को बताए उस नुस्खे का प्रयोग करते रहते हैं और हालत बद से बदतर होती जाती है। 

यदि आप इस बारे में उनको जानकारी दें और उनके बीच जागरूकता उत्पन्न करें तो छत्तीसगढ़ के सपेरे समुदाय की तरह ही वे भी इसका उपयोग करना बंद कर देंगे और उनके समुदाय में फिर इस तरह लोगों की मृत्यु किडनी रोगों के कारण नहीं होगी। 

संस्था के सदस्यों ने धन्यवाद दिया और मुझे आश्वस्त किया कि वे इस बारे में जल्दी ही एक जन जागरण अभियान चलाएंगे और समुदाय को इस बारे में सूचित करेंगे। मैंने उन्हें शुभकामनाएं दी। 

कई महीनों के बाद उन्होंने मुझसे फिर से संपर्क किया और बताया कि उन्होंने समुदाय के मुखिया से बात की है और वे कह रहे हैं कि वे किसी भी हालत में नुस्खे का प्रयोग नहीं रोकना चाहते हैं। 

उन्होंने साफ शब्दों में इस बात को मानने से इंकार कर दिया कि इसरमूल के प्रयोग से उनकी किडनी खराब होती है। संस्था के सदस्यों ने यह भी बताया कि उन्होंने व्यापक जन जागरण किया पर मुखिया के विरोध के बाद उन्हें इस कार्यक्रम को पूरी तरह से रोकना पड़ा और अभी भी सपेरा समुदाय के लोग इस नुस्खे का प्रयोग कर रहे हैं। 

मैंने उनसे कहा कि एक और समाधान है और उन्हें बताया कि अगर वे चाहें तो इस नुस्खे में इसरमूल का प्रयोग जारी रख सकते हैं पर उन्हें इसरमूल का प्रयोग करने से पहले इसरमूल को 3 महीनों तक पारंपरिक विधियों से शोधित करना होगा। इससे इसरमूल का दोष पूरी तरह से खत्म हो जाएगा। मेरी इस बात को सुनकर संस्था के लोग नए उत्साह से भर गए और उन्होंने मुखिया से फिर से संपर्क किया। 

उन्होंने बताया कि उन्होंने मुखिया को इस बात के लिए तैयार कर लिया है कि वे नुस्खे बनाने वाले से अनुरोध करेंगे कि इसरमूल को 3 महीने तक शोधित करने के बाद ही उसका उपयोग फार्मूले में किया जाए।

 मैंने शोधन की पूरी विधि विस्तार से उन्हें बता दी। सपेरे समुदाय के जो लोग इस फार्मूले को तैयार करते थे वे रायपुर आकर मुझसे मिले और अपनी जिज्ञासाओं का समाधान किया।

 1 महीने पहले मुझे उनके द्वारा शोधित इसरमूल के नमूने प्राप्त हुए। मैंने पारंपरिक विधियों से उनकी जांच की और उन्हें बताया कि अब उनकी इसरमूल पूरी तरह से दोषमुक्त है और वे इसका प्रयोग अपने नुस्खे में कर सकते हैं। 

इस तरह भारतीय पारंपरिक चिकित्सकीय ज्ञान के माध्यम से एक और बड़ी समस्या का सरल समाधान हो गया। सब ने राहत की सांस ली। 


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