Consultation in Corona Period-28
Consultation in Corona Period-28
Pankaj Oudhia पंकज अवधिया
"एक अजीब सा केस हमारे सामने आया है और हम यह नहीं पता लगा पा रहे हैं कि तकलीफ का मूल कारण क्या है?
यह केस एक 25 वर्षीय युवक का है जिसके सभी महत्वपूर्ण शारीरिक अंग धीरे-धीरे अपनी सक्रियता खोते जा रहे हैं। उसकी हालत तेजी से बिगड़ती जा रही है। हर बार की तरह हम आपसे इस बारे में आपके विचार जानना चाहते हैं।
हमने सारी रिपोर्ट आपको व्हाट्सएप कर दी है और अगर आपको किसी और तरह की जानकारी की आवश्यकता हो तो हमें बताएं।"
गुड़गांव के एक प्रसिद्ध अस्पताल के डॉक्टर मित्र ने यह संदेश भेजा और साथ में ढेर सारी रिपोर्ट भेजी। मैं इस अस्पताल से कई वर्षों से जुड़ा हूं और अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर उन्हें सलाह देता रहता हूं।
मैंने रिपोर्ट का अध्ययन किया पर जैसा कि डॉक्टर मित्र कह रहे थे कि रिपोर्ट से कुछ भी स्पष्ट नहीं हो रहा था।
शाम को जब डॉक्टर मित्र का फोन आया तो मैंने अपनी राय उन्हें बतायी और कहा कि यदि संभव हो तो मैं उस युवक से लंबी बातचीत करना चाहूंगा।
डॉक्टर मित्र ने कहा कि उसकी हालत बहुत खराब है। वह बहुत कमजोर हो गया है। दस मिनट बोलने के बाद थक जाता है फिर भी वे कोशिश करेंगे कि मुझसे बात हो जाए।
जब मैंने उस युवक से बातचीत शुरू की तो मैंने उसके रोग के बारे में ज्यादा कुछ नहीं पूछा। बस उसके शौक के बारे में पूछता रहा।
उसने बताया कि उसे बाइकिंग का शौक है और इस शौक के कारण वह देश भर में घूमता रहता है। उसे नाइट कैंपिंग में बहुत मजा आता है और वह कई बार छत्तीसगढ़ भी आ चुका है।
वह अपनी इन बातों में इतना खो गया कि उसे समय का पता ही नहीं लगा और उसमें एक अजीब सा उत्साह भर गया।
बातों ही बातों में उसने बताया कि एक बार उसके टेंट में गोह (मॉनिटर लिजर्ड) घुस गया था और जब उन्होंने उसे भगाने की कोशिश की तो उसने जगह जगह पर काट लिया था।
उसकी इस बात से मुझे सूत्र मिल गया था।
जब मैंने इस घटना पर विस्तार से जानना चाहा तो उसने बताया कि उसने घाव को पहले तो घर में ठीक करने की कोशिश की पर जब बात नहीं बनी तो वह डॉक्टर के पास गया पर पूरी तरह से घाव कभी नहीं भरा।
उसने यह भी कहा कि जब से यह घटना हुई है उसके बाद से एक दिन भी उसकी तबीयत ठीक नहीं रही। धीरे धीरे वह इतना अशक्त हो गया कि उसे बिस्तर पर आना पड़ा।
मैंने पूछा कि क्या उसने यह बात गुड़गांव के डॉक्टरों को बताई है तो उसने कहा हां, बताई थी पर उन्होंने इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया।
बातचीत खत्म होने के बाद मैंने अपने डॉक्टर मित्र को यह बात बताई तो उन्होंने कहा कि इस घटना को हुए बहुत महीने हो गए और उन्हें नहीं लगता कि उसकी ऐसी हालत उस जीव के कारण हुई है।
मैंने उन्हें बताया कि हमारे छत्तीसगढ़ के पारंपरिक चिकित्सक विशेष तरह की जड़ी बूटियों के लेप का प्रयोग करते हैं और इससे पता लगाते हैं कि गोह या विषखोपड़ा का विष अभी भी शरीर में विद्यमान है कि नहीं। अगर वे चाहे तो मैं उस लेप की सामग्री भेज सकता हूं।
उन्होंने अपने साथी डॉक्टरों से विमर्श किया फिर तैयार हो गए। उस समय लॉकडाउन लगा था इसीलिए गुड़गांव तक सामग्री पहुंचाना कठिन था।
पर यह अच्छी बात थी कि आवश्यक हवाई सेवाएं शुरु थी इसलिए यह काम शीघ्रता से हो गया।
मैंने डॉक्टर मित्र से कहा कि युवक के दोनों हाथों के अंगूठे में इस लेप को लगाए और शरीर में होने वाली प्रतिक्रियाओं पर ध्यान केंद्रित करें।
उन्होंने ऐसा ही किया और सारी प्रतिक्रियाओं के बारे में विस्तार से मुझे बताया।
मैंने मित्र से कहा कि इस परीक्षण से यह सिद्ध हो रहा है कि विष अभी तक शरीर में है और संभवत: सारे उत्पातों का कारण वही है।
ऐसी घटनाएं बहुत कम होती हैं इसलिए इस बारे में ज्यादा शोध संदर्भ उपलब्ध नहीं है। उस अस्पताल के लिए यह मामला एकदम नया था।
गोह के काटने के इतने दिनों के बाद उनके पास इस हेतु प्रयोग की जाने वाली दवाओं की जानकारी भी नहीं थी।
मैंने उन्हें सलाह दी कि वे भारत के पारंपरिक चिकित्सकीय ज्ञान का सहारा लें और अगर वे चाहें तो मैं इसमें उनकी मदद कर सकता हूं। वे तैयार हो गए।
मैंने अपना डेटाबेस खंगाला तो मुझे पता चला कि पैरी नदी में एक विशेष प्रकार की मछली पाई जाती है जिसका प्रयोग संजीवनी भोग समूह के औषधीय धानों के साथ करने से गोह का विष 15 से 20 दिनों में शरीर से बाहर निकल जाता है।
आनन-फानन में मैंने उस मछली का प्रबंध कर लिया और साथ ही संजीवनी भोग समूह के पांच औषधीय धानों का भी। पर मुझे बताया गया है कि युवक पूरी तरह से शाकाहारी है और वह किसी भी हालत में मछली का प्रयोग नहीं करेगा।
यह दुविधा वाली स्थिति थी। उसे समझाया गया कि दवा के रूप में वह इसका प्रयोग करें। यह भी कोशिश की गई कि उसे बिना बताए इसे दिया जाए क्योंकि उसकी जान बचाना बहुत जरूरी था पर किसी भी तरह से बात नहीं बनी।
मैंने विकल्प के रूप में अपना डेटाबेस का फिर से सहारा लिया।
बहुत पहले गरियाबंद के एक पारंपरिक चिकित्सक ने मुझे बताया था कि बारुका के पास मुख्य सड़क के किनारे एक पाकर का वृक्ष है जिसके ऊपर 30 से अधिक प्रकार की वनस्पतियां अपने आप उगी हुई थी।
पारंपरिक चिकित्सा में इन्हें पितृ वृक्ष कहते हैं और पारम्परिक चिकित्सक इन वृक्षों का प्रयोग अपनी चिकित्सा में अक्सर करते हैं। जटिल रोगों में ऐसे वृक्षों की विशेष भूमिका होती है।
मैंने इस विषय में पारंपरिक चिकित्सकीय ज्ञान का विस्तार से दस्तावेजीकरण किया है।
जब मैंने अपने सूत्रों से उस वृक्ष के बारे में जानकारी एकत्र करनी चाहिए तो मुझे पता चला है कि सड़क चौड़ीकरण होने के कारण उस वृक्ष को उखाड़ दिया गया है। अब वैसा ही वृक्ष खोज पाना टेढ़ी खीर थी।
यही उपाय था कि फिर से पारंपरिक चिकित्सक से सीधे सलाह ली जाए। पारंपरिक चिकित्सक ने बताया कि देवभोग के जंगल में एक ऐसा वृक्ष है। इसका उपयोग किया जा सकता है।
उन्होंने उसका सही पता भी बताया और अपने चेले को भेजकर पाकर की छाल भी मंगा ली।
अब संजीवनी भोग समूह के औषधीय धानों के साथ में पाकर की छाल का प्रयोग करना था। इसमें मछली का प्रयोग नहीं था।
पारंपरिक चिकित्सक ने कहा कि इससे वैसा ही लाभ होगा। इस फार्मूले का उपयोग शुरू हुआ तो शुरू के 10 दिनों में किसी भी तरह का कोई सुधार नहीं नजर आया।
डॉक्टर मित्र कहने लगे कि शायद यह समस्या गोह के विष के कारण नहीं है पर उनके पास कोई उपाय भी नहीं था क्योंकि उन्हें रोग की जड़ का पता नहीं चल रहा था और युवक की हालत तेजी से बिगड़ती जा रही थी।
जब मैंने पारंपरिक चिकित्सक से फिर से सलाह ली तो उन्होंने कहा कि अगर इस फार्मूले में तेजराज का प्रयोग किया जाए तो यह अधिक कारगर सिद्ध हो सकता है।
उन्होंने मुझे निर्देशित किया कि मैं गंधमर्दन पर्वत से तेजराज मंगा लूं और यह भी बताया कि वहां स्थानीय भाषा में इसे तेजराज नहीं कहा जाता है।
गंधमर्दन पर्वत के आसपास के बहुत से पारंपरिक चिकित्सक मेरे परिचित के हैं और उनसे अक्सर मुलाकात होती रहती है इसलिए तेजराज का प्रबंध करने में मुझे ज्यादा दिक्कत नहीं हुई।
जब इस फार्मूले में तेजराज का प्रयोग किया गया तो उसने 24 घंटे के अंदर असर दिखाना शुरू किया और युवक की हालत में तेजी से सुधार होने लगा। एक हफ्ते बाद ही उसे अस्पताल से छुट्टी मिल गई।
अब डॉक्टर मित्र इस केस को शोध पत्र के रूप में प्रकाशित करने की तैयारी कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ऐसी घटनाओं के लिए यह शोध पत्र मील का पत्थर साबित होगा।
इस पूरी घटना के समय मुझे छत्तीसगढ़ के पारंपरिक चिकित्सक श्री धनीराम की याद आती रही। उनसे मैंने इस बारे में काफी कुछ सीखा और जाना।
वे कहते थे कि जब भी गोह काट ले तो एक फावड़ा लें। ऐसा फावड़ा जिसे कि मेहनतकश मजदूर ने इस्तेमाल किया हो और जो उसके पसीने से सन गया हो।
फिर उसकी लकड़ी को पत्थर पर घिस लें और लेप को उस स्थान पर तुरंत लगा दे जहां पर गोह ने काटा है।
वे कहते थे कि इससे गोह का विष तुरंत समाप्त हो जाता है। इस युवक के मामले में इस तरह का प्रयोग संभव नहीं था पर इस ज्ञान की याद मुझे बार-बार आती रही।
इंटरनेट पर बहुत से सर्प विशेषज्ञ गोह को जहरीला नहीं मानते हैं। यह उनकी भ्रांति है।
इस शोधपत्र के प्रकाशन के बाद हमें उम्मीद है कि उनकी यह भ्रांति दूर हो जाएगी।
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