Consultation in Corona Period-22
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Pankaj Oudhia पंकज अवधिया
"कोरोना के कारण जब किसी के फेफड़े के साथ उसके दिमाग, यकृत, और वृक्क पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है तब कोई भी दवा काम नहीं करती है।
ऐसे समय में आपके द्वारा दी गई जड़ी चमत्कारिक रूप से काम कर रही है और शुरुआती ट्रायल में हमें बहुत अधिक सफलता मिली है।
हम अब फाइनल ट्रायल करने वाले हैं। इसके लिए हमें आपके द्वारा भेजी गई जड़ी का स्थानीय नाम और वैज्ञानिक नाम चाहिए।"
कोरोना पर शोध कर रहे वैज्ञानिकों के दल ने दिल्ली से यह संदेश भेजा।
मैंने उन्हें कहा कि जड़ी का एक नाम भ्रमरमार है पर इसे देशभर में 250 से अधिक अलग-अलग नामों से जाना जाता है।
यह एक अति दुर्लभ जड़ी बूटी है और मैं चाहता हूं कि आप अपने शोध में इसे भ्रमरमार के रूप में ही इस्तेमाल करें न कि इसके वैज्ञानिक नाम के आधार पर क्योंकि मुझे डर है कि एक बार वैज्ञानिक नाम का खुलासा होने पर इसके लिए मारामारी मच जाएगी और फिर पारंपरिक चिकित्सकों को यह जटिल रोगों की चिकित्सा के लिए नहीं मिलेगा।
वैसे चाहें तो मैं आपको एक ऐसा वैज्ञानिक नाम बता सकता हूं जिसके बारे में आपको कहीं भी कोई भी जानकारी नहीं मिलेगी। वह वैज्ञानिक नाम है Planta Atidurlabha. इस नाम से तो आप सब समझ ही गए होंगे- ऐसी मैं आशा करता हूं।
मेरे इस जवाब के बाद उन्होंने फिर से मुझे संदेश भेजा कि हमने इंटरनेट पर भ्रमरमार के बारे में बहुत खोजा और हमें जो भी जानकारी मिली वह आपके नाम की थी।
आपने इस वनस्पति पर लाखों पन्ने लिखे हैं और कई सौ घंटों की फिल्म बनाई है पर हमने यह देखा है कि आपने कहीं भी वैज्ञानिक नाम का प्रयोग नहीं किया है।
आपकी बात को ध्यान में रखते हुए हम भी अपने शोध में इसे भ्रमरमार के रूप में प्रस्तुत करेंगे न कि इसके वैज्ञानिक नाम से। आपकी चिंता में हम आपके साथ हैं।
मैंने उन्हें धन्यवाद दिया और आगे के फाइनल ट्रायल के लिए उन्हें शुभकामनाएं दी।
पिछले 30 वर्षों में इसके बारे में जो भी जानकारी मुझे मिली उसे मैं लिखता रहा हूं।
हमारे देश के पारंपरिक चिकित्सक इसे संजीवनी से भी अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं क्योंकि उनका मानना है कि यदि किसी की मृत्यु हो जाए और मृत्यु के 3 घंटों के अंदर इसका प्रयोग किया जाए तो यह बहुत से मामलों में जीवन वापस ला सकता है।
वे इसका संबंध मृत्यु के बाद सक्रिय होने वाली धनंजय वायु से करते हैं।
मैंने अभी तक तो अपने जीवन में किसी को पुनर्जीवित होते नहीं देखा पर Ethnobotanist होने के कारण मुझे जो भी बातें बताई जाती है उसे मैं अक्षरश: अपने दस्तावेज में लिख लेता हूं।
हालांकि मैंने इस वनस्पति की बहुत सारी फोटो खींची है पर किसी को भी सार्वजनिक नहीं किया है। इसका कारण यह है कि इस वनस्पति को जंगल में खोज पाना बहुत कठिन है और इसके विषय में जानकारी बहुत कम पारंपरिक चिकित्सकों को है।
वे पूरा पौधा किसी को देने की बजाय उपयोगी अंग ही देते हैं और उसे भी जड़ी बूटियों के घोल में डुबा कर ऐसा बना देते हैं कि कोई जंगल में उसे पहचान न पाए।
मैंने भी जो छोटा सा टुकड़ा वैज्ञानिकों को भेजा था उसे वे भी किसी भी तरह से नहीं पहचान पाए इसलिए उन्होंने मुझसे संपर्क किया।
हमारे देश के लाखों पारंपरिक नुस्खों में भ्रमरमार का प्रयोग गोपनीय घटक के रूप में होता है और ज्यादातर फॉर्मूलेशंस इसके बिना अधूरे माने जाते हैं।
भ्रमरमार के बारे में दुनिया भर में जानकारी है और दुनिया भर के वैज्ञानिक और उद्योगपति भारत में इसकी तलाश करते रहते हैं।
वे चाहते हैं कि किसी भी कीमत पर यह बूटी उन्हें मिल जाए पर उन्हें असफलता ही हाथ लगती है। बहुत से लोग किसी दूसरी बूटी को भ्रमरमार बता कर दे देते हैं फिर जब उसका असर नहीं होता है तो खरीदने वाले को ठगी का अहसास होता है।
मैंने कृषि की विधिवत शिक्षा ली है और Agronomist हूं। मैंने बहुत प्रयास किए पिछले 20 वर्षों में कि इस जंगली पौधे की खेती की विधियाँ विकसित कर लूं ताकि हमारे किसानों को फायदा हो जाए और साथ ही पारंपरिक चिकित्सकों को इसके खत्म हो जाने का डर न रहे।
मैंने इसे अलग-अलग प्रकार की मिट्टियों में उगाकर देखा। अलग-अलग जलवायु वाले इलाकों में भी उगाकर देखा।
यह उग तो जाता है पर जब इसका प्रयोग औषधि के रूप में किया जाता है तो इसके औषधि गुण वैसे नहीं होते जैसे कि वे जंगल में होते हैं और पारंपरिक चिकित्सक खेती से उगाए गए भ्रमरमार को लेने के लिए तैयार नहीं होते हैं। आखिर थक हार कर मैंने इसकी खेती के प्रयास छोड़ दिए।
यदि किसी को भ्रमरमार मिल भी जाए तो वह इसका सीधा प्रयोग नहीं कर सकता है क्योंकि इसके शोधन की विधि बहुत कठिन है।
इसमें एक वर्ष से लेकर 12 वर्ष तक लगते हैं। उसके बाद ही शोधित भ्रमणमार का उपयोग किया जाता है।
दुर्भाग्य से आज हमारे बीच बहुत कम ऐसे पारंपरिक चिकित्सक बचे हैं जिन्हें इस बूटी के बारे में ज्यादा जानकारी है।
इनकी संख्या मुश्किल से 50 होगी और वे सभी उम्र के अंतिम पड़ाव में है। उनके बाद यह ज्ञान सदा सदा के लिए विलुप्त हो जाएगा-इसकी संभावना है।
ये पारंपरिक चिकित्सक हमेशा यह कोशिश करते हैं कि जब भी वे जंगल जाएं तो लुक छुप कर जाए ताकि कोई उनका पीछा न करें और यह न देख पाए कि भ्रमरमार जंगल के किस भाग में उगा हुआ है।
अधिकतर वे अमावस की रात को सारे जोखिम उठाकर जाते हैं और जड़ी को लेकर आते हैं।
एक बार मुझे दीपावली की रात में उनके साथ जाने का अवसर मिला और मैंने उस प्रक्रिया को पूरी तरह से जाना।
एक विशेष प्रक्रिया से उसे एकत्र किया जाता है और फिर अलग-अलग घोलों में डुबा कर उसकी पहचान छुपाई जाती है।
इस दौरान इस बात का ध्यान रखा जाता है कि घोलों में डुबोने के कारण उनके औषधीय गुणों में बिल्कुल भी कमी न आए।
अमावस की रात में जंगल में जाना बहुत खतरनाक होता है पर पारंपरिक चिकित्सक पूरी तैयारी से जाते हैं और केवल भ्रमरमार को ही एकत्र करके लाते हैं।
हम सभी को बड़ा डर सताता है कि कहीं तांत्रिकों के हाथ में यह बूटी न लग जाए।
अगर यह तांत्रिकों के हाथ में लग जाएगी तो वे किसी धन्ना सेठ को करोड़ों में बेच देंगे और लाल कपड़े में लपेट के वह सेठ इस महत्वपूर्ण बूटी को तिजोरी में रख लेगा।
तिजोरी में कुछ होगा या नहीं यह तो नहीं पता लेकिन यह दुर्लभ जड़ी बूटी किसी की जान नहीं बचा पाएगी।
एक छोटे से टुकड़े से 25 से 30 लोगों को मौत के मुंह से बचाया जा सकता है। ऐसे में इस जड़ी का तिजोरी में पड़े रहने का कोई औचित्य नहीं है।
जब भी कोई पारंपरिक चिकित्सक इस दुनिया को छोड़ कर ज्ञानमठ की ओर जाते हैं तो उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होने वाले सभी पारंपरिक चिकित्सकों और जानकारों को इस जड़ी का एक छोटा सा टुकड़ा दिया जाता है ताकि वे सब वापस लौट कर मौत के आगोश में पड़े लोगों को बचा सके। ऐसी परंपरा पूरे देश में रही है पर अब धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है।
भ्रमरमार की वैज्ञानिक पहचान जानने के लिए दुनिया भर से लोग संपर्क करते हैं और तरह तरह के दबाव बनाते हैं। मुझे याद आता है कि कुछ वर्षों पहले मुझे मुंबई के एक होटल में 5 दिनों तक बंधक बनाकर रखा गया था और मुझे यातनाएं दी गई कि मैं इस बूटी का वैज्ञानिक नाम उन्हें बता दूँ।
वह तो गनीमत थी कि वहां के मैनेजर की मां को कैंसर था और मैं उनकी मदद कर रहा था जो उन्होंने मुझे इन दरिंदों के चंगुल से बचाया।
आप तो जानते ही होंगे कि जब मौत सामने होती है और सारे प्रयास विफल हो गए होते हैं तो देश के अलग-अलग हिस्सों में पारे से बनी दवा दी जाती है अंतिम दवा के रूप में और ज्यादातर मामलों में मृत्यु जीत ही जाती है।
भ्रमरमार के जानकार पारंपरिक चिकित्सक पारे के स्थान पर भ्रमरमार का प्रयोग करते हैं जो कि जहरीला नहीं होता है और उसके कारण किसी की मृत्यु नहीं होती है।
बहुत से मामलों में जब पारे का प्रयोग किया जाता है तो रोगी की मृत्यु स्वाभाविक न होकर पारे के कारण हो जाती है। भ्रमरमार इस दुष्प्रभाव से बचाता है।
यदि कोरोनावायरस के फाइनल ट्रायल में इस बूटी को सफलता मिल जाती है और प्रभावित रोगी के सभी अंग फिर से काम करने लग जाते हैं तो हमारे लिए यह एक बड़ी चिंता होगी कि लाखों मरीजों के लिए इतनी अधिक मात्रा में भ्रमरमार का प्रबंध कैसे किया जाए।
इस बार मैंने फिर से मन बनाया है कि इसकी खेती के प्रयासों को मैं जारी रखूंगा ताकि लाखों लोगों की जानें बच सके और जंगल से यह पूरी तरह से खत्म भी न हो।
हमें कितनी सफलता मिलती है यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
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