Consultation in Corona Period-229
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Pankaj Oudhia पंकज अवधिया
"क्या जड़ी बूटियों की सहायता से खूंखार अपराधियों की मानसिक दशा को ठीक किया जा सकता है और उन्हें फिर से सामान्य जीवन जीने के लिए प्रेरित किया जा सकता है? यह तो सर्वदा नई बात लगती है पर हमें यह बात पता चली एक ब्रिटिशर्स की डायरी से जो कि 1920 में मध्य भारत में वानस्पतिक सर्वेक्षण करने आए थे।
उन्होंने ऐसे बहुत से पारंपरिक चिकित्सकों के बारे में लिखा है जो कि ऐसे नुस्खों के बारे में जानते थे जिनका प्रयोग करने से खूंखार से खूंखार अपराधी भी सामान्य मनुष्य की तरह व्यवहार करने लग जाता था और फिर उसकी सजा माफ कर दी जाती थी। अंग्रेज शासक इस बात को जानते थे और वे बड़ी संख्या में ऐसे अपराधियों को ऐसे पारंपरिक चिकित्सकों के पास भेजते थे या पारंपरिक चिकित्सकों को जेल में बुलवा लेते थे जहां ऐसे अपराधियों की चिकित्सा की जाती थी। यह बड़ी कारगर थी पर आश्चर्य की बात है कि उसके बाद किसी ने भी इस पर कुछ ज्यादा नहीं लिखा। जिन वनस्पति विशेषज्ञ ने इस बात को अपनी डायरी में लिखा वह तो अब दुनिया में नहीं है और उनकी इस बात को लिखे हुए 100 साल से अधिक का समय हो चुका है पर हमें अभी भी लगता है कि ऐसी जानकारी कहीं न कहीं तो जरूर होगी दस्तावेज के रूप में। आप लंबे समय से मध्य भारत ही नहीं बल्कि पूरे भारत में और दूसरे एशियाई देशों में पारंपरिक चिकित्सकीय ज्ञान का दस्तावेजीकरण कर रहे हैं इसलिए आपसे हमें उम्मीद लगी कि हम आपको इस बारे में बताएं और आपसे पूछे कि क्या आप ने ऐसे किसी उपचार के बारे में कभी सुना है?" मुंबई के एक प्रसिद्ध शोध संस्थान के वैज्ञानिकों ने जब मुझे यह संदेश भेजा तो मैंने उनसे कहा कि इस दिशा में मैं आपकी मदद कर सकता हूँ। मैंने इस अनोखे पारंपरिक चिकित्सकीय ज्ञान का डॉक्यूमेंटेशन किया है। अधिकतर शोधकर्ता ऐसे ज्ञान को ही लिखते हैं जिनका वर्तमान में महत्व होता है या जिनका भविष्य में किसी तरह से उपयोग हो सकता है। ऐसे ज्ञान के बारे में वे नहीं लिखते हैं जोकि बहुत पुराना हो चुका है और अभी उपयोग नहीं हो रहा है।
बहुत से पारंपरिक ज्ञान जिन्हें आधुनिक विज्ञान की कसौटी में नहीं कसा जा सका है उनके बारे में भी लिखने से या बताने से शोधकर्ता परहेज करते हैं पर मैंने शुरू से ही यह निश्चय किया कि मुझे पारंपरिक चिकित्सक जो भी जानकारी देंगे मैं उन्हें उनके मूल स्वरूप में लिखता जाऊंगा। स्वयं वैज्ञानिक होने का घमंड नहीं पालूँगा। जिन बातों को मैं नहीं समझ पाऊंगा उनके बारे में भी बिल्कुल वैसा ही लिखूंगा जैसा कि मुझे बताया गया है। हो सकता है कि आने वाली पीढ़ी उसमें विज्ञान खोज ले और यह आने वाले पीढ़ी के लिए उपयोगी सिद्ध हो जाए।
मैंने उन्हें आगे बताया कि मैंने 300 प्रकार के ऐसे फॉर्मूलेशन के बारे में जानकारी एकत्र की है और अपने डेटाबेस में अपलोड किया है जिनका प्रयोग करने से जिन खूंखार अपराधियों की बात आप कर रहे हैं उनकी मानसिक स्थिति में सुधार किया जा सकता है और फिर उन्हें सामान्य जीवन जीने के लिए तैयार किया जा सकता है। जिन पारंपरिक चिकित्सकों से मैंने इन फॉर्मूलेशंस को इकट्ठा किया है उनमें से ज्यादातर तो अब इस दुनिया में नहीं है पर उन्होंने भी इन फॉर्मूलेशंस का बहुत अधिक उपयोग नहीं किया। यही कारण है कि ये फॉर्मूलेशंस और अधिक शक्तिशाली नहीं बनाए गए और इनके बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है। इन 300 फॉर्मूलेशंस के अलावा 1500 ऐसे फॉर्मूलेशंस है जो कि उस काल में प्रयोग किए जाते थे पर ये फॉर्मूलेशन अधूरे हैं। इनमें कई घटकों के बारे में जानकारी नहीं है लेकिन फिर भी आधे अधूरे ये फॉर्मूलेशन भविष्य में विज्ञान की बहुत मदद कर सकते हैं।
मैंने उन्हें खुलासा करते हुए बताया कि इन फॉर्मूलेशंस को तैयार करने में कई सालों की कड़ी मेहनत लगती थी और जो पारंपरिक चिकित्सक इन फॉर्मूलेशंस को तैयार करते थे वे इसी कार्य के लिए समाज में जाने जाते थे। वे एक तरह से मानसिक रोगों की चिकित्सा में दक्ष थे। और उनकी सेवाएं लेने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे। 1990 के दशक में मैंने इनमें से ज्यादातर फॉर्मूलेशंस को फिर से बनाया और फिर पारंपरिक चिकित्सकों से जांच करवाई। उसके बाद आधुनिक प्रयोगशाला में इनकी जांच की यह पता लगाने के लिए कि इनमें प्रयोग होने वाली वनस्पतियों में क्या विशेष गुण हैं जिनके कारण ये खूंखार अपराधियों को भी ठीक कर देते हैं। इन प्रयोगों से मुझे बड़ी रोचक जानकारियां मिली।
एक बात तो तय थी कि इन वनस्पतियों में लिथियम की मात्रा पर्याप्त थी और आधुनिक विज्ञान भी इस बात को मानता है कि लिथियम की भूमिका मानसिक रोगों में बहुत अहम है। बहुत से ऐसे शोध पत्र मिलते हैं जिनमें बताया गया है कि खूंखार अपराधियों के शरीर में लिथियम जैसे तत्वों की कमी होती है जिसके कारण वे ऐसी हरकत कर बैठते हैं हालांकि इस पर बहुत अधिक शोध नहीं हुए हैं और इस तथ्य को स्थापित नहीं किया जा सका है फिर भी आधुनिक चिकित्सा में मानसिक रोगों के लिए लिथियम का प्रयोग सप्लीमेंट के रूप में होता है और इसके सकारात्मक परिणाम भी मिलते हैं। जब मैं इस महत्वपूर्ण पारंपरिक चिकित्सकीय ज्ञान का दस्तावेजीकरण कर रहा था तब मुझे बार-बार पारंपरिक चिकित्सक इस बात का ध्यान दिला रहे थे कि इन फॉर्मूलेशंस का प्रयोग बहुत संभल कर करना चाहिए। यदि इन फ़ार्मूलेशन्स को लंबे समय तक दिया गया तो किडनी और हार्ट पर असर पड़ सकता है और प्रभावित व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है। उस समय मुझे इस बात पर आश्चर्य होता था कि कोई फॉर्मूलेशन ऐसा कैसे हो सकता है जो कि जीवन भी दे सकता है और थोड़ी सी मात्रा अधिक होने पर मृत्यु भी प्राप्त हो सकती है। पर अब जब मैं आधुनिक शोधों को पढ़ता हूँ विशेषकर लिथियम के बारे में तो पता चलता है कि जब लिथियम का प्रयोग किया जाता है तो खून की लगातार जांच की जाती है ताकि इसकी मात्रा अधिक न हो क्योंकि मात्रा अधिक होने से सबसे पहले किडनी फिर उसके बाद हृदय पर असर पड़ता है और प्रभावित व्यक्ति की मृत्यु तक हो सकती है।
एक बात और मैंने नोट की और वह है कि आयुर्वेद के पुराने ग्रंथों में इन वनस्पतियों के बारे में किसी भी प्रकार का जिक्र नहीं है। न ही ऐसे फॉर्मूलेशंस का जिक्र है जिनका प्रयोग करके खूंखार अपराधियों को सामान्य जीवन जीने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। यह मध्य भारत का अनूठा पारंपरिक चिकित्सकीय ज्ञान है जो कि अब विलुप्त हो चुका है।
इनमें से कुछ वनस्पतियों का प्रयोग आजकल बहुत सारी दवा कंपनियां कर रही हैं प्रतिनिधि द्रव्य के रूप में अर्थात जब शास्त्रों में वर्णित जड़ी बूटियां नहीं मिलती है तो प्रतिनिधि जड़ी बूटियों का प्रयोग किया जाता है उनके स्थान पर। प्रतिनिधि द्रव्यों के बारे में आयुर्वेद में बहुत अधिक जानकारी है पर फिर भी दवा कंपनी वाले जिन वनस्पतियों का प्रयोग करते हैं उनमें से ज्यादातर वनस्पतियों के बारे में शास्त्रीय ग्रंथों में ज्यादा जानकारी नहीं दी गई है।
मैंने पिछले 20 सालों में कई हजार ऐसे केस देखे हैं जिनमें च्यवनप्राश का प्रयोग करने से प्रयोग करने वाले व्यक्ति को किडनी की समस्या हो गई और उन्हें इस बात का विश्वास ही नहीं होता कि यह च्यवनप्राश के सेवन से हो रहा है। दरअसल प्रतिनिधि द्रव्य के रूप में डाली गई लिथियम से समृद्ध वनस्पतियां च्यवनप्राश को दोषपूर्ण बना दे रही थी जिसके कारण बड़ी संख्या में लोग किडनी की समस्या से प्रभावित होने लगे। इस बारे में किसी ने कुछ ज्यादा लिखा भी नहीं और न ही विशेष ध्यान दिया। यही कारण है कि आज भी च्यवनप्राश के प्रयोग से बहुत से व्यक्ति किडनी रोग से प्रभावित हो जाते हैं और उनकी जान पर बन आती है।
अपने मन मुताबिक जानकारी प्राप्त कर मुंबई के शोध संस्थान के वैज्ञानिक बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि उन्होंने कल्पना नहीं की थी कि इतनी सारी जानकारी एक ही स्थान पर मिल जाएगी और इतने सारे गुप्त फॉर्मूलेशंस के बारे में विस्तार से इतना सब कुछ भी। उन्होंने धन्यवाद दिया और कहा कि वे जल्दी ही एक अंतरराष्ट्रीय प्रोजेक्ट इस विषय पर लेंगे और फिर मेरे तकनीकी मार्गदर्शन में इस प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाएंगे। ताकि इन फ़ार्मूलेशन्स का उपयोग खूंखार अपराधियों को ठीक करने के लिए किया जा सके और उन्हें फांसी की सजा से बचाने की पैरवी की जा सके।
उनकी सोच सचमुच सराहनीय है और मुझे सबसे अच्छी बात यह लगी कि विलुप्तप्राय पारंपरिक चिकित्सकीय ज्ञान की उन्होंने सुध ली।
मैं इस प्रोजेक्ट में वैज्ञानिकों का मार्गदर्शन करने के लिए आतुर हूँ।
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