Consultation in Corona Period-209
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Pankaj Oudhia पंकज अवधिया
"अगर आप कहते हैं कि जिन्हें वैक्सीन लगाया जाना है उनकी इम्युनिटी तगड़ी होनी चाहिए तो मैं कहता हूं कि अगर इम्यूनिटी तगड़ी है तो फिर वैक्सीन की क्या जरूरत है? आप कहते हैं कि जब इस वैक्सीन का ट्रायल चल रहा था तब दसों लोग मौत के घाट उतर गए और सैकड़ों लोगों को ऐसी बीमारियां हो गई जो कि अब उनके जीवन में ठीक नहीं हो सकती हैं तब मैं कहना चाहूंगा कि इस वैक्सीन में सुधार की जरूरत है। आखिर हड़बड़ी किस बात की है?
फिर आप कहते हैं कि आपने मीडिया का प्रबंधन कर लिया है और देश के बड़े चिकित्सकों को अपने नियंत्रण में कर लिया है। वैक्सीन से अगर किसी भी तरह की मौत होगी तो मीडिया कह देगा कि यह वैक्सीन से होने वाली मौत नहीं है और जिन चिकित्सकों को हमने अपने नियंत्रण में रखा है वे कह देंगे कि मीडिया में जो बात कही जा रही है वह सही है। मौत का कारण वैक्सीन नहीं है। मुझे नहीं लगता कि मैं इस महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट से जुड़ पाऊंगा क्योंकि मुझे अपने लोगों को खतरे में डालकर धन कमाने का कोई भी शौक नहीं है। मैं इस वैक्सीन के बारे में अपने स्तंभ में किसी भी प्रकार से नहीं लिखूंगा। न अच्छाई के बारे में न बुराई के बारे में। मैं पूरी तरह से इस प्रोजेक्ट से दूर रहना चाहता हूं। आपने मुझे आमंत्रित किया। इसके लिए आपका धन्यवाद।" मैं 15 वर्ष पूर्व विशेषज्ञों की एक टीम से बात कर रहा था जो कि अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान सम्मेलन में भाग लेने के लिए कोलकाता आई हुई थी। सम्मेलन के दौरान उन्होंने मुझे अलग से एक कमरे में आमंत्रित किया और फिर अपने इस महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट के बारे में बताया। वे उस समय एचआईवी के लिए वैक्सीन के निर्माण में लगे हुए थे।
उस समय मैं बॉटनिकल डॉट कॉम पर नियमित स्तंभ लिखा करता था जिसे कि दुनिया भर में शौक से पढ़ा जाता था। अपने प्रोजेक्ट के बारे में बताते हुए उन विशेषज्ञों की मंशा यह थी कि मैं उनके द्वारा विकसित की गई वैक्सीन के बारे में अपने स्तंभ में लिखूँ और उसके एवज में मनमाने पैसे ले लूँ। जब मैंने विस्तार से उनसे इस बारे में पूछना शुरू किया तो मुझे वैक्सीन के बहुत सारे दोष नजर आए और जब उन्होंने मीडिया प्रबंधन की बात की तो मुझे लगा कि इस प्रोजेक्ट से मुझे नहीं जुड़ना चाहिए। मेरी बातों का असर नहीं हुआ और मैं कमरे से बाहर आ गया। बात आई गई हो गई। मैं इस समाचार का इंतजार करता रहा कि वैक्सीन कब आएगी और फिर दुनिया पर उसका क्या असर होगा। इसके बारे में किसी भी तरह की कोई खबर नहीं मिली। न ही उन्होंने मुझसे फिर से संपर्क किया। दो-तीन वर्षों के बाद एक वैज्ञानिक ने मुझसे संपर्क किया और बताया कि वे भी उस प्रोजेक्ट में शामिल थे जिसमें कि एचआईवी के लिए वैक्सीन का निर्माण किया जा रहा था। वे उस समय कोलकाता में ही उपस्थित थे जब मैं उन विशेषज्ञों से बात कर रहा था। उन्होंने बताया कि मेरी बातों से प्रभावित होकर उन्होंने यह प्रोजेक्ट छोड़ दिया और अपने मूल शोध पर लौट आए। मैंने उनसे पूछा कि उस प्रोजेक्ट का क्या हुआ और वह वैक्सीन क्या बाजार में आ पाई तो उन्होंने बताया कि वैक्सीन के प्रोजेक्ट से जुड़े हुए सभी लोग अब जेल में है। उनकी वैक्सीन जब बाजार में आने को तैयार थी उसी समय कुछ संवेदनशील लोगों को इस बारे में पता चला और उन्होंने उसे बाजार में आने से पूरी तरह से रोक दिया। अगर वह बाजार में आ जाती तो कोहराम मच जाता। कितना भी मीडिया प्रबंधन किया जाता असंख्य मौतों को कोई भी मीडिया छुपा नहीं सकता है।
उन्होंने मेरा शुक्रिया अदा किया जो मैंने उन्हें इस प्रोजेक्ट से हटने की प्रेरणा दी और बताया कि वे Autism पर काम कर रहे हैं। वे मुझसे यह जानकारी चाहते थे कि क्या गर्भावस्था में ऐसे भोजन का प्रयोग किया जा सकता है जिससे कि भविष्य में पैदा होने वाले बच्चे को Autism की समस्या किसी भी तरह से न हो। उनकी योजना थी कि गर्भावस्था के पहले 3 महीने में विशेष तरह के भोजनों को आजमा कर देखा जाए और फिर उन पर विस्तार से शोध किया जाए। जब मैंने कहा कि मैं इस दिशा में आपकी मदद करने को तैयार हूं और अपने ज्ञान के आधार पर आपके लिए ऐसी भोजन सामग्रियों और उनके प्रयोग के बारे में जानकारी दे सकता हूं तो उन्होंने एक अंतरराष्ट्रीय एजेंसी से अपने प्रोजेक्ट को मंजूर करवा लिया। हम लोगों ने योजना बनाई कि मेरे द्वारा सुझाई गई भोजन सामग्रियों का प्रयोग पहले के तीन महीनों, बीच के तीन महीनों और आखिर के तीन महीनों में किया जाए और फिर परिणाम देखे जाएं।
मैं इस तरह की योजना से बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं रख रहा था क्योंकि मुझे लगता था कि समागम से 15 दिन पहले ही पति और पत्नी दोनों को ही विशेष तरह के भोजन अगर दिए जाएं तो उस समय ये भोजन अधिक लाभकारी रहेंगे। वैज्ञानिक महोदय का कहना था कि शुरू के तीन महीने में दिमाग का निर्माण होता है और Autism दिमाग से जुड़ी हुई बीमारी है इसीलिए अगर शुरू के तीन महीने में अच्छे फंक्शनल फूड का प्रयोग किया जाए तो ऑटिज्म की समस्याओं को पूरी तरह से रोका जा सकता है। 3 सालों तक वे इन फंक्शनल फूड पर काम करते रहे पर उन्हें आशाजनक परिणाम नहीं मिले। सफलता का स्तर केवल 40% ही रहा अर्थात फंक्शनल फ़ूड का प्रयोग करने वाली महिलाओं ने Autism से प्रभावित बच्चों को जन्म नहीं दिया। वे अधिक सफलता चाहते थे इसलिए उन्होंने दूसरी तरह की भोजन सामग्रियों को भी अपने शोध में शामिल किया पर कई साल बाद भी उन्हें किसी भी तरह की बड़ी सफलता नहीं मिली।
वे पूरी तरह से भारतीय फंक्शनल फ़ूड का प्रयोग कर रहे थे। इसके बाद उन्होंने पश्चिमी फंक्शनल फ़ूड का प्रयोग करना भी शुरू किया और फिर भारतीय और पश्चिमी फंक्शन फ़ूड को मिलाकर कई तरह के प्रयोग किए हैं।
आखिर हारकर उन्होंने कहा कि वे इस बार समागम के 15 दिन पहले से पति-पत्नी को दी जाने वाली भोजन सामग्री पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे और देखेंगे कि क्या इससे वास्तव में कुछ फर्क पड़ता है? आगे के सालों में उन्होंने इस पर कई तरह के प्रयोग किए और फिर निष्कर्ष निकाला कि समागम के पहले ही यदि पति-पत्नी स्वस्थ हो तो बच्चों को Autism होने की संभावना काफी हद तक कम हो जाती है। उनका प्रयोग अभी भी जारी है। उन्हें उम्मीद है कि आगे आने वाले 10 सालों में वे अपने शोध निष्कर्षों को प्रकाशित कर पाएंगे तब दुनिया जान पाएगी कि कैसे पति-पत्नी का स्वास्थ बच्चे को Autism होने से बचा सकता है। उनकी सफलता की कहानी सुनकर बहुत से भारतीय वैज्ञानिकों ने भी इस क्षेत्र में अपनी रुचि दिखाई और मुझसे मदद मांगी। मैंने उन्हें पारंपरिक चिकित्सकों के पास भेजा और उनकी सहायता से उन्होंने अब इस महत्वाकांक्षी परियोजना पर काम करना शुरू कर दिया है। उनमें से कुछ वैज्ञानिकों का ध्यान केवल मेडिसिनल राइस पर है। वे देश भर के 300 से भी अधिक प्रकार के मेडिसिनल राइस को आजमा कर देख रहे हैं। इनमें ब्लैक राइस, ग्रीन राइस, यलो राइस और रेड राइस शामिल है। यदि इन 300 प्रकार के मेडिसिनल राइस में से कुछ मेडिसिनल राइस ही कारगर सिद्ध हो जाते हैं तो ये किसानों के लिए वरदान साबित होंगे। किसान इनकी खेती करेंगे। इससे उन्हें अधिक मुनाफा होगा और इन मेडिसिनल राइस पर आधारित व्यापार को लगातार कच्चे माल की आपूर्ति होती रहेगी।
इस परियोजना से हम सबको बहुत उम्मीद है।
सर्वाधिकार सुरक्षित
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