अस्थमा के लिए उत्तरदायी सजावटी वृक्ष से क्या नई राजधानी बची रह सकेगी?
अस्थमा के लिए उत्तरदायी सजावटी वृक्ष से क्या नई राजधानी बची रह सकेगी?
-पंकज अवधिया
वर्ष १९९२ में जब आई.आई.टी. कानपुर परिसर में अचानक ही बड़ी संख्या में लोग अस्थमा (दमा) के शिकार होने लगे तो इसके कारण की खोज की जाने लगी| पता चला कि हाल ही में फूलों से लदे दस से अधिक सप्तपर्णी के वृक्षों को काटा गया था| इस प्रक्रिया में उनके परागकण हवा में बिखर गए और आस-पास रहने वालों को अस्थायी अस्थमा हो गया| सप्तपर्णी से एलर्जी न केवल आम लोगों के लिए बल्कि विशेषज्ञों के लिए भी नयी बात थी| उस समय विज्ञान इसके बारे में ज्यादा कुछ कहता नहीं था| आई.आई.टी. कानपुर परिसर में सप्तपर्णी के हजारों वृक्ष हैं| आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि छत्तीसगढ़ विशेषकर रायपुर में इसके अनगिनत वृक्ष मौजूद हैं| इन्हें सजावटी वृक्षों की तरह सडक के दोनों ओर बड़ी संख्या में लगाया गया है और लगातार लगाया जा रहा है| वर्ष १९९२ के बाद इस पर व्यापक शोध हुए और अब यह स्थापित हो चुका है कि इसके परागकण अस्थमा और सम्बन्धित रोगों के लिए उत्तरदायी हैं|
मनुष्यों की तरह ही वनस्पतियों में अच्छाईयां और बुराईयाँ दोनों होती हैं| सप्तपर्णी या छातिम का वैज्ञानिक नाम ऐलेस्टोनिया स्कालेरिस है| यह महाकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर का पसंदीदा वृक्ष रहा है| शान्ति निकेतन में बड़ी संख्या में इसे लगाया गया है| इसे दीता के नाम से पहचाना जाता है बंगाल में| यह वहां का राजकीय वृक्ष है| आज भी शान्ति निकेतन में डिग्री सप्तपर्णी की पत्तियों में दी जाती है दीक्षांत समारोह में| वैज्ञानिक सन्दर्भ कहते हैं कि शायद इसीलिये सप्तपर्णी का नाम स्कालर ट्री पड़ा| पहले स्लेट पट्टी का निर्माण इसकी लकड़ियों से होता था| इसे ब्लैक बोर्ड ट्री भी कहा जाता है|
शहरों में योजनाकार इसे इसलिए पसंद करते हैं क्योंकि इसे कम देखभाल के लगाया जा सकता है| इसके फूल सुंदर होते हैं पर इनकी गंध अजीब सी होती हैं| इस गंध को किसी भी दृष्टिकोण से सुगंध नहीं कहा जा सकता है| देश भर में अक्टूबर से मार्च के बीच इसमें पुष्पन होता है| इसी समय अचानक ही आस-पास अस्थमा के रोगियों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हो जाती है| आम लोग यह नहीं समझ पाते हैं कि उनके इस महारोग का कारण घर में सामने उग रहा यह सजावटी वृक्ष है| वैसे ही राजधानी के लोग गाजर घास के परागकणों से होने वाली एलर्जी से साल भर त्रस्त रहते हैं| ऐसे में सप्तपर्णी की यह मार सोने में सुहागा वाली बात होती है|
भले ही सप्तपर्णी के परागकण हानिकारक है पर इसके दूसरे भाग औषधीय गुणों से भरपूर हैं| बंगाल में तो दीपावली जैसे उत्सवों से पहले इसकी छाल का काढ़ा पीने की परम्परा है ताकि उत्सवों के दौरान मीठे व्यंजनों के हानिकारक प्रभावों से बचा जा सके| देश भर के पारम्परिक चिकित्सक मधुमेह की चिकित्सा में इसका प्रयोग करते हैं पर जरा सम्भलकर क्योंकि इसकी अधिक मात्रा किडनी और मूत्र तंत्र को नुक्सान पहुंचाती है| देश के पारम्परिक चिकित्सक सप्तपर्णी के साथ दस से लेकर ३०० प्रकार की वनस्पतियाँ मिलाकर इसका प्रयोग करते हैं ताकि सप्तपर्णी के दोषों को दूर कर केवल लाभ लिया जा सके| आधुनिक वैज्ञानिक साहित्य बताते हैं कि दुनिया भर में साधारण ज्वर से लेकर कैंसर जैसे जटिल रोगों की चिकित्सा में सप्तपर्णी का प्रयोग होता है|
पारम्परिक खेती विशेषकर जैविक खेती से जुड़े किसानो के लिए यह वरदान है| इसके विषय में समृद्ध पारम्परिक ज्ञान हमारे देश में है| आज भी इसका प्रयोग सफल है और बहुत से मामलों में तो आधुनिक कृषि रसायनों के असफल हो जाने के बाद भी यह सफलतापूर्वक किसानो को समस्या से निजात दिला देता है|
सप्तपर्णी का एक अंग्रेज़ी नाम "डेविल ट्री" है| शायद इसके हानिकारक गुणों को देखते हुए इसे यह नाम मिला है| पश्चिमी घाट के आदिवासी पीढीयों से यह मानते आये हैं कि इसमें शैतान का वास होता है| इसलिए वे इससे दूरी बनाये रखते हैं और गांव में इसे नही लगाते| अक्सर जन-स्वास्थ्य के लिए हानिकारक वृक्षों से ऐसी बातें जोड़ दी जाती हैं ताकि आम लोग उसमें रूचि न लें|
आधुनिक विज्ञान हमें इसके सभी पहलुओं के विषय में जानकारी देता है| यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है कि कैसे हम इसका उपयोग करते हैं| ऐसे स्थान जो मानव आबादी से दूर हों वहां पर निश्चित ही इसका रोपण लाभप्रद होगा| नयी राजधानी में बड़े पैमाने पर इसे लगाने की योजना है| सम्भवत: योजनाकार इसके हानिकारक प्रभावों के परिचित नहीं है| अखबार के माध्यम से वे आज यह जान चुके हैं| उन्हें पुनर्विचार करना चाहिए|
राजधानी के चौबे कालोनी में बड़ी संख्या में सप्तपर्णी उपस्थित है| बहुत से जानकार पुष्पन के समय वृक्ष पर नमक के तनु घोल का छिडकाव कर देते हैं ताकि परागकणों की सक्रियता कम हो जाए और उनसे नुक्सान न हो| पर बड़े पैमाने और बड़े वृक्षों पर ऐसे प्रयोग संभव नहीं हैं| कुछ दिनों पहले सिरपुर मेला की ओर जाते हुए मैंने रास्ते में जंगल में सडक के दोनों ओर लगाये गए सप्तपर्णी को देखा| प्राकृतिक तौर पर ये हमारे जंगलों में नहीं है| रास्ते भर सोचता रहा कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से ये वन्य जीवों को जाने क्या नुक्सान पहुंचा रहे हों?
(लेखक कृषि वैज्ञानिक हैं और राज्य में पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान का दस्तावेजीकरण कर रहे हैं|)
Published in Navabharat, Daily Chhattisgarh and Covered by Sahara Chhattisgarh.
-पंकज अवधिया
वर्ष १९९२ में जब आई.आई.टी. कानपुर परिसर में अचानक ही बड़ी संख्या में लोग अस्थमा (दमा) के शिकार होने लगे तो इसके कारण की खोज की जाने लगी| पता चला कि हाल ही में फूलों से लदे दस से अधिक सप्तपर्णी के वृक्षों को काटा गया था| इस प्रक्रिया में उनके परागकण हवा में बिखर गए और आस-पास रहने वालों को अस्थायी अस्थमा हो गया| सप्तपर्णी से एलर्जी न केवल आम लोगों के लिए बल्कि विशेषज्ञों के लिए भी नयी बात थी| उस समय विज्ञान इसके बारे में ज्यादा कुछ कहता नहीं था| आई.आई.टी. कानपुर परिसर में सप्तपर्णी के हजारों वृक्ष हैं| आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि छत्तीसगढ़ विशेषकर रायपुर में इसके अनगिनत वृक्ष मौजूद हैं| इन्हें सजावटी वृक्षों की तरह सडक के दोनों ओर बड़ी संख्या में लगाया गया है और लगातार लगाया जा रहा है| वर्ष १९९२ के बाद इस पर व्यापक शोध हुए और अब यह स्थापित हो चुका है कि इसके परागकण अस्थमा और सम्बन्धित रोगों के लिए उत्तरदायी हैं|
मनुष्यों की तरह ही वनस्पतियों में अच्छाईयां और बुराईयाँ दोनों होती हैं| सप्तपर्णी या छातिम का वैज्ञानिक नाम ऐलेस्टोनिया स्कालेरिस है| यह महाकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर का पसंदीदा वृक्ष रहा है| शान्ति निकेतन में बड़ी संख्या में इसे लगाया गया है| इसे दीता के नाम से पहचाना जाता है बंगाल में| यह वहां का राजकीय वृक्ष है| आज भी शान्ति निकेतन में डिग्री सप्तपर्णी की पत्तियों में दी जाती है दीक्षांत समारोह में| वैज्ञानिक सन्दर्भ कहते हैं कि शायद इसीलिये सप्तपर्णी का नाम स्कालर ट्री पड़ा| पहले स्लेट पट्टी का निर्माण इसकी लकड़ियों से होता था| इसे ब्लैक बोर्ड ट्री भी कहा जाता है|
शहरों में योजनाकार इसे इसलिए पसंद करते हैं क्योंकि इसे कम देखभाल के लगाया जा सकता है| इसके फूल सुंदर होते हैं पर इनकी गंध अजीब सी होती हैं| इस गंध को किसी भी दृष्टिकोण से सुगंध नहीं कहा जा सकता है| देश भर में अक्टूबर से मार्च के बीच इसमें पुष्पन होता है| इसी समय अचानक ही आस-पास अस्थमा के रोगियों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हो जाती है| आम लोग यह नहीं समझ पाते हैं कि उनके इस महारोग का कारण घर में सामने उग रहा यह सजावटी वृक्ष है| वैसे ही राजधानी के लोग गाजर घास के परागकणों से होने वाली एलर्जी से साल भर त्रस्त रहते हैं| ऐसे में सप्तपर्णी की यह मार सोने में सुहागा वाली बात होती है|
भले ही सप्तपर्णी के परागकण हानिकारक है पर इसके दूसरे भाग औषधीय गुणों से भरपूर हैं| बंगाल में तो दीपावली जैसे उत्सवों से पहले इसकी छाल का काढ़ा पीने की परम्परा है ताकि उत्सवों के दौरान मीठे व्यंजनों के हानिकारक प्रभावों से बचा जा सके| देश भर के पारम्परिक चिकित्सक मधुमेह की चिकित्सा में इसका प्रयोग करते हैं पर जरा सम्भलकर क्योंकि इसकी अधिक मात्रा किडनी और मूत्र तंत्र को नुक्सान पहुंचाती है| देश के पारम्परिक चिकित्सक सप्तपर्णी के साथ दस से लेकर ३०० प्रकार की वनस्पतियाँ मिलाकर इसका प्रयोग करते हैं ताकि सप्तपर्णी के दोषों को दूर कर केवल लाभ लिया जा सके| आधुनिक वैज्ञानिक साहित्य बताते हैं कि दुनिया भर में साधारण ज्वर से लेकर कैंसर जैसे जटिल रोगों की चिकित्सा में सप्तपर्णी का प्रयोग होता है|
पारम्परिक खेती विशेषकर जैविक खेती से जुड़े किसानो के लिए यह वरदान है| इसके विषय में समृद्ध पारम्परिक ज्ञान हमारे देश में है| आज भी इसका प्रयोग सफल है और बहुत से मामलों में तो आधुनिक कृषि रसायनों के असफल हो जाने के बाद भी यह सफलतापूर्वक किसानो को समस्या से निजात दिला देता है|
सप्तपर्णी का एक अंग्रेज़ी नाम "डेविल ट्री" है| शायद इसके हानिकारक गुणों को देखते हुए इसे यह नाम मिला है| पश्चिमी घाट के आदिवासी पीढीयों से यह मानते आये हैं कि इसमें शैतान का वास होता है| इसलिए वे इससे दूरी बनाये रखते हैं और गांव में इसे नही लगाते| अक्सर जन-स्वास्थ्य के लिए हानिकारक वृक्षों से ऐसी बातें जोड़ दी जाती हैं ताकि आम लोग उसमें रूचि न लें|
आधुनिक विज्ञान हमें इसके सभी पहलुओं के विषय में जानकारी देता है| यह हमारे विवेक पर निर्भर करता है कि कैसे हम इसका उपयोग करते हैं| ऐसे स्थान जो मानव आबादी से दूर हों वहां पर निश्चित ही इसका रोपण लाभप्रद होगा| नयी राजधानी में बड़े पैमाने पर इसे लगाने की योजना है| सम्भवत: योजनाकार इसके हानिकारक प्रभावों के परिचित नहीं है| अखबार के माध्यम से वे आज यह जान चुके हैं| उन्हें पुनर्विचार करना चाहिए|
राजधानी के चौबे कालोनी में बड़ी संख्या में सप्तपर्णी उपस्थित है| बहुत से जानकार पुष्पन के समय वृक्ष पर नमक के तनु घोल का छिडकाव कर देते हैं ताकि परागकणों की सक्रियता कम हो जाए और उनसे नुक्सान न हो| पर बड़े पैमाने और बड़े वृक्षों पर ऐसे प्रयोग संभव नहीं हैं| कुछ दिनों पहले सिरपुर मेला की ओर जाते हुए मैंने रास्ते में जंगल में सडक के दोनों ओर लगाये गए सप्तपर्णी को देखा| प्राकृतिक तौर पर ये हमारे जंगलों में नहीं है| रास्ते भर सोचता रहा कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से ये वन्य जीवों को जाने क्या नुक्सान पहुंचा रहे हों?
(लेखक कृषि वैज्ञानिक हैं और राज्य में पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान का दस्तावेजीकरण कर रहे हैं|)
Published in Navabharat, Daily Chhattisgarh and Covered by Sahara Chhattisgarh.
Comments