काँटे ही काँटे है पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे : भाग –चार
काँटे ही काँटे है पारम्परिक चिकित्सकीय ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे : भाग –चार
- पंकज अवधिया
कुछ वर्षो पहले मुझे एक नवयुवक का फोन आया। उसे एडस था और डाक्टरो ने दस दिन का समय उसे दिया था। उसने मेरा आलेख पढकर मुझसे सम्पर्क किया। मैने उसे एक पारम्परिक चिकित्सक का पता दिया। दो महीने बाद फिर उसका फोन आया। आवाज मे खनक के साथ। वह धन्यवाद देना चाहता था। फिर 6 महीने बाद एक और फोन आया। उसके बाद फोन नही आया। उम्मीद है वह अब भी सकुशल होगा। इस तरह हजारो रोगी मैने पारम्परिक चिकित्सको के पास भेजे है। आप कह सकते है कि मुझे सारा हिसाब रखना चाहिये कौन आया, किससे मिला, क्या दवा दी गई, कितना फायदा हुआ। पर बिना पैसा खर्च किये यह सम्भव नही है। फिर मै दस्तावेजीकरण को ज्यादा जरूरी मानता हूँ। मैने इस पर बहुत से लेख लिखे और स्वयम सेवी संगठनो से अनुरोध किया कि हिसाब रखने का काम वे करे पर बिना पैसे किसी ने रूचि नही दिखाई। मधुमेह से लेकर असाध्य रोगो तक के लिये दसो फोन रोज आते है। मैने स्पष्ट नीति बना रखी है कि न मरीज से पैसे लेना न ही पारम्परिक चिकित्सको से। इस कार्य से मिलने वाली दुआ ज्यादा महत्वपूर्ण है। आपको आश्चर्य होगा कि लोग हवाई जहाज मे बिठाकर पारम्परिक चिकित्सको को ले जाते है और फिर घर छोड जाते है। दान पेटी मे मोटी रकम भी डाल जाते है। मै किसी तरह का दावा नही करता। रोगियो से कहता हूँ कि आप जाकर तसल्ली कर फिर विवेकानुसार निर्णय ले। मै उनसे अपना नाम कहने की बात भी नही करता। क्योकि ज्यादातर पारम्परिक चिकित्सक रोगियो को समान भाव से देखते है। सिफारिश का ज्यादा महत्व नही है। रोगियो के साथ कई तरह की समस्या है। मै रायपुर के पारम्परिक चिकित्सक माननीय ज़द्दू जी के बुरे अनुभव के बारे मे बताना चाहूँगा। उन्हे लोग मेरे लिखने से पहले से जानते थे। एक बार एक मरीज को देखने वे लन्दन चले गये। वे वात रोगो मे महारत रखते है और उनके जादुई तेल से अब तक बहुत से लोग ठीक हो चुके है। वे इसी तेल के साथ लन्दन ले जाये गये। इलाज हुआ। काफी सत्कार हुआ। फिर ले जाने वाले की नीयत डोल गई। बोला पहले राज बताओ फिर वापस जाने मिलेगा। छोटे शहर का भोला सा इंसान परेशान हो गया। फिर भी उन्होने मना कर दिया। काफी टाल-मटोल के बाद उन्हे भारत भेजा गया। कुछ पारम्परिक चिकित्सक चंट होते है तो कुछ आम लोगो की तरह होते है। सब अपने स्वभाव के हिसाब से रोगियो से मिलते है। रोगियो और पारम्परिक चिकित्सको के बीच सेतु बनने से लोग खूब दुआए देते है। वे बार-बार कुछ देना चाहते है पर मना करने पर अचरज जाहिर करते है। कुछ ऐसे लोग भी होते है जो बिना मुझसे मिले ही सीधे पारम्परिक चिकित्सको के पास चले जाते है। कुछ अकेले आते है तो कुछ गाँव भर के मरीजो को लेकर आते है। कुछ शिकायत भी करते है। कहते है आपने तो लिखा है कि वे पैसे नही लेते पर अमुक ने दवा के पैसे लिये। आप हमारे पैसे लौटाइये। कुछ लोग जयादा मात्रा मे दवा ले जाना चाहते है। पर पारम्परिक चिकित्सक इसके लिये तैयार नही होते है। इसके कई कारण है। एक तो ज्यादातर पारम्परिक चिकित्सको के पास इतने पैसे नही होते कि वे ज्यादा मात्रा मे दवा बनाये। फिर बीच मे यह शिकायत आई कि पारम्परिक चिकित्सको से मुफ्त मे ले जायी जा रही दवा दूसरे राज्यो मे ऊँची कीमत पर बेची जा रही है। इसलिये भी सब चौकस हो गये। मेरे आलेख पारम्परिक चिकित्सक की भोली छवि बनाते है। पर कुछ पारम्परिक चिकित्सक अब मोबाइल उपयोग करते है। कुछ ने घर पक्का बनवा लिया है। इससे रोगी कुछ चकित महसूस करते है। इस सबसे कई प्रश्न भी मन मे आते है कि क्या यह सही है? भाई लोग अपने व्याख्यानो मे कहते है कि पहले पारम्परिक चिकित्सको के ज्ञान का परीक्षण होना चाहिये फिर रोगियो को उनके पास भेजना चाहिये। ऐसे व्याख्यान मै बीस सालो से सुन रहा हूँ। परीक्षण तो होते नही है पर भाषण चलते रहते है। इससे अच्छा तो यह है कि कम से कम पारम्परिक ज्ञान कुछ काम आ रहा है और पारम्परिक चिकित्सको को कुछ पैसे मिल रहे है। जिस हिसाब से आधुनिक चिकित्सा का जाल फैल रहा है और हमारे अपने ज्ञान को वैकल्पिक कहा जा रहा है वह निन्दनीय है। मेरे देखते-देखते पिछले दस सालो मे स्थितियाँ बुरी तरह बिग़डी है और पारम्परिक चिकित्सक और ज्ञान दोनो ही को अपूर्णीय क्षति हुयी है। इस तरह के व्याख्यानो के अलावा एक नेशनल रजिस्टर बनाने की बात भी मै सालो से सुन रहा हूँ। इसमे गाँव के पारम्परिक ज्ञान को गाँव मे ही दर्ज कर लिया जायेगा। इस तरह पूरे देश का ज्ञान इसमे आ जायेगा। पर सभी स्तर पर इच्छा शक्ति का अभाव इस कार्य को मूर्त रूप प्रदान नही कर पा रहा है। हाल ही मे एक जन संगठन ने अपने सम्मेलन मे फिर से यह बात दोहरायी।
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