अरहर या तुअर और कैंसर पर पंकज अवधिया का शोधपरक आलेख
अरहर या तुअर और
कैंसर पर पंकज अवधिया का शोधपरक आलेख
दुनिया भर की
पारंपरिक चिकित्सा में अरहर के पत्तों को पानी में उबालकर उसके काढ़े से गरारा करने
या कुल्ला करने की बात कही गई है.
भारत में भी यह
प्रयोग आम है.
2 वर्ष पूर्व मेरे पास मुंह के कैंसर से प्रभावित
एक व्यक्ति आया. उस का कैंसर दूसरी अवस्था में था.
आधुनिक चिकित्सक उसे
जवाब दे चुके थे और वह पारंपरिक चिकित्सा के सहारे था.
मुझे बताया गया कि
उसका कैंसर बहुत तेजी से फैल रहा है और किसी भी तरह से दवाओं से काबू में नहीं आ
रहा है.
मैंने विस्तार से
उससे जानकारी ली कि वह कौन कौन सी दवाई ले रहा है बाहरी दवाएं भी और आंतरिक दवाएं
भी.
सारी जानकारी लेने
के बाद मुझे सब कुछ ठीक लगा.
मुझे बताया गया कि
वैद्य ने उस व्यक्ति को अरहर की पत्तियों के काढ़े से कुल्ला करने को कहा है.
वह व्यक्ति रायपुर
से था. उसने बताया कि वह पास के खेतों में जाकर अरहर की पत्तियां ले आता है और फिर
पानी में उबालकर उस पानी से कुल्ला करता है.
मुझे कुछ शक हुआ.
मैंने उसे निर्देशित किया कि वह कुछ समय तक अरहर की पत्तियों का ऐसा प्रयोग रोक
दें.
उसने मेरी बात
मानी और कुछ समय बाद उसने बताया कि उसके कैंसर का फैलाव अब उतनी तेजी से नहीं हो
रहा है.
मैंने खुलासा किया
कि अरहर की पत्तियों के प्रयोग में किसी भी प्रकार का दोष नहीं है पर चूँकि रायपुर
बहुत ज्यादा प्रदूषित शहर है इसलिए यहां उगने वाली वनस्पतियों की पत्तियों में
प्रदूषण का विष आ जाता है जिससे दवाएं जहर बन जाती है.
यही उस व्यक्ति के
साथ हुआ. मैंने उसे निर्देशित किया कि वह किसी दूरदराज के गांव से अरहर की
पत्तियां लेकर आएं और फिर उसका ऐसा प्रयोग करें तो उसे निश्चित ही सफलता मिलेगी. उसने मेरी बात एक
बार फिर से मानी और फिर जैसा कि वैद्य चाहते थे उसे अन्य दवाओं के साथ अरहर की
पत्तियों के पानी से भी लाभ होने लगा.
छत्तीसगढ़ और देश
के दूसरे हिस्सों में बड़े पैमाने पर अरहर की खेती होती है पर अरहर की जैविक खेती
बहुत कम स्थानों पर होती है.
दूसरी फसलों की
तरह अरहर की फसल में भी भारी मात्रा में कीटनाशकों और दूसरे प्रकार की कृषि
रसायनों का प्रयोग होता है. इसके कारण उत्पादन तो अधिक होता है पर औषधि उपयोग के
लिए यह उपयुक्त नहीं होता है.
आप इन खेतों से
अरहर के किसी भी भाग को एकत्र करके औषधि के रूप में प्रयोग नहीं कर सकते.
यदि आप ऐसा करते
हैं तो वैसे ही विपरीत परिणाम आते हैं जिसकी चर्चा मैंने पहले की है.
अरहर की पत्तियों
के प्रयोग में सही मायने में लाभ तभी मिलता है जब देशी अरहर का प्रयोग किया जाए.
आजकल अधिक उत्पादन
देने वाली बहुत तरह की विदेशी और हाइब्रिड अरहर की किस्में हमारे बीच उपलब्ध हैं.
यह औषधि के रूप
में अधिक कारगर नहीं है. इन्हें औषधीय उपयोग के लिए नहीं विकसित किया गया है.
इन्हें केवल
उत्पादन के दृष्टिकोण से विकसित किया गया है इसलिए अरहर की पत्तियों का प्रयोग
करने से पहले बेहद सतर्कता की जरूरत है.
कुछ वर्षों पहले
इंदौर से एक मरीज ने मुझसे संपर्क किया. उसे जबड़ों का कैंसर था.
उसे भी राजस्थान
के किसी वैद्य ने यह सलाह दी थी कि अरहर की पत्तियों से तैयार घोल से वह कुल्ला
करें पर उसने बताया कि जब भी वह कुल्ला करता था तब उसे मुंह में छाले हो जाते थे जिससे
कैंसर की पीड़ा बहुत ज्यादा बढ़ जाती थी.
उसने मुझे बताया
कि वह जैविक खेती से तैयार अरहर की पत्तियों को ही काढ़ा बनाने के लिए चुनता है.
जब मैंने विस्तार
से जैविक विधियों की जानकारी एकत्र की तब पता चला कि इंदौर का किसान गोमूत्र में
कई प्रकार के खरपतवारों को डाल कर घोल तैयार कर रहा था और फिर उसकी सहायता
से अरहर की फसल में कीटों का नियंत्रण करता था.
जिन खरपतवारों का
प्रयोग वह करता था उनमें धतूरा और आक जैसे विषाक्त खरपतवार भी थे.
यही कारण था कि जब
वह विषैले घोल का प्रयोग अरहर की पत्तियों पर करता था तो कीटों का नियंत्रण तो
सफलतापूर्वक हो जाता था पर उन पत्तियों से काढा तैयार करने से उस व्यक्ति के मुंह
में छाले हो जाते थे.
जब उसे निर्देशित
किया गया कि वह इस पत्ती का प्रयोग बंद कर दें तो जल्दी ही उसे इस समस्या से निजात
मिल गई.
टॉन्सिल से
प्रभावित मुंबई के एक व्यक्ति ने मुझसे संपर्क किया तब उसने बताया कि वह घर में
नाना प्रकार की जड़ी बूटियां उगाता है और फिर उससे अपनी बीमारियों की चिकित्सा
करता है.
टॉन्सिल के लिए वह
अरहर की पत्तियों का काढा इस्तेमाल कर रहा था.
उसने बताया कि वह जैविक
विधियों से अपनी जड़ी बूटियों को सिंचित करता है और उसके बाद दवा के रूप में
प्रयोग करता है.
विस्तार से
जानकारी लेने पर उसने बताया कि वह गोबर के घोल का प्रयोग करता है जिसमें वह कनेर
की ताजा पत्तियों को डालता है फिर घोल को 15 दिन के लिए सड़ने के लिए छोड़ देता है.
उसके बाद इस गोल
को छानकर पौधों को सिंचित करता है. उसने बताया कि अरहर की पत्तियों के प्रयोग के
बाद उसके मुंह से खून आना शुरू हो जाता है.
मैंने उसे
निर्देशित किया कि वह कनेर की पत्तियों का उपयोग गोबर के घोल में न करें. इससे
उसकी समस्या का समाधान हो जाएगा.
उसने मेरी बात
मानी और इस छोटे से सुधार के बाद उसकी समस्या का समाधान हो गया.
अरहर की खेती में
फसल के साथ में बहुत सारे खरपतवार उगते हैं.
इन खरपतवारों में
एक खरपतवार है गाजर घास. गाजर घास अमेरिका से आयातित गेहूं के साथ भारत आयी और फिर
पूरे भारत में फैल गई.
यह खरपतवार दूसरे
खरपतवारों की तरह कई प्रकार के एलीलोरसायन मिट्टी में छोड़ता है जिससे आसपास उगने
वाले पौधे या तो मर जाते हैं या उनकी वृद्धि पर विपरीत प्रभाव पड़ता है.
जब ऐसे खेतों से अरहर
की पत्तियों को एकत्रित किया जाता है जहां पर बहुत ही अधिक संख्या में गाजर घास हो
रही है तब ऐसी पत्तियों को पारंपरिक चिकित्सक काढ़े के रूप में इस्तेमाल करने की अनुमति
नहीं देते हैं.
इसी तरह जंगली
गोभी नामक खरपतवार भी अरहर की पत्तियों की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव डालता है.
अरहर की फसल में
जब पानी की कमी होती है तब भी इसकी पत्तियों में औषधि गुण कम हो जाते हैं. ऐसी
पत्तियों का प्रयोग काढ़े के रूप में नहीं किया जाता है.
यूकेलिप्टस के
प्लांटेशन के नीचे स्थित खेतों में जब अरहर की खेती की जाती है तो यूकेलिप्टस के
खतरनाक रसायन अरहर की फसल पर नुकसानदायक प्रभाव डालते हैं और उनकी पत्तियों को
गुणहीन बना देते हैं.
मैंने अपने अनुभव
से जाना है कि इस तरह की पत्तियों का उपयोग भी काढ़े में नहीं करना चाहिए.
खेतों से अरहर की
पत्तिया एकत्र करने के स्थान पर यदि उसे घर पर ही उगा लिया जाए और फिर
आवश्यकतानुसार पत्तियों का संग्रहण किया जाए-यही उपयुक्त जान पड़ता है.
बस्तर के मेरे एक
मित्र पारंपरिक चिकित्सक यह बताते हैं कि जैविक विधि से या पारंपरिक विधि से उगाई
जा रही जा रही अरहर की फसल में यदि कीटों का आक्रमण होता है तब अरहर की पत्तियों
का इस्तेमाल करने के लिए पत्तियां चुनते समय ऐसी पत्तियों का चुनाव करना चाहिए
जिसमें अधिक मात्रा में कीटों का प्रकोप हो क्योंकि प्रकृति में कीट सबसे अच्छी
गुणवत्ता की पत्तियां चुनते हैं.
आप कीट प्रभावित
पत्ती के भाग को हटाकर शेष पत्ती को उसी तरह दवा के रुप में इस्तेमाल कर सकते हैं.
मुंह के कैंसर के
लिए जब हमारे देश के पारंपरिक चिकित्सक अरहर की पत्तियों के काढ़े का प्रयोग करते
हैं तब वे अरहर की फसल को या अरहर के पौधे को वृद्धि की विभिन्न अवस्थाओं में नाना
प्रकार के सत्वों से सिंचित करते हैं और उसके बाद ही जब अरहर की पत्तियां दिव्य
औषधि गुणों से परिपूर्ण हो जाती हैं तब उसका औषधि के रूप में प्रयोग करते हैं.
अमरकंटक के
पारंपरिक चिकित्सक साल के वृक्षों से एकत्र की गई गोंद का उपयोग अरहर के पौधों को
सिंचित करने के लिए करते हैं.
इसी तरह बस्तर के पारम्परिक
चिकित्सक मोद्गर नामक जंगली वृक्ष से एकत्र की गई गोंद का प्रयोग इस कार्य के लिए
करते हैं.
मैंने अपने अनुभव
से अमरबेल पर आधारित पारंपरिक मिश्रण से अरहर को सिंचित करने का प्रयोग कारगर पाया
है.
इस मिश्रण में
अमरबेल के साथ 25 प्रकार की जड़ी बूटियों का प्रयोग किया जाता है
पर अहम भूमिका अमरबेल की ही होती है.
साजा के पुराने
वृक्षों से एकत्र किया गया अमरबेल का पौधा पारंपरिक मिश्रण बनाने के लिए उपयुक्त
होता है.
कर्नाटक के
पारंपरिक चिकित्सकों से जब मैंने इस बारे में विस्तार से चर्चा की तो उन्होंने
बताया कि वह खस के पौधे की सहायता से अरहर के पौधों का उपचार करते हैं और इस तरह
उसके औषधीय गुणों में वृद्धि करते हैं.
धारवाड़ के पास एक
गांव में रह रहे बुजुर्ग पारंपरिक चिकित्सक ने बताया कि वे जंगली धान की सहायता से
अरहर के पौधे को सिंचित करते हैं और इस तरह उसकी पत्तियों को मुंह के कैंसर के लिए
उपयोगी बनाते हैं.
पचमढ़ी के
पारंपरिक चिकित्सक मुझे सुदूर पहाड़ियों में लेकर गए जहां उन्होंने जमीन की गहराई
से एक कंद को खोदा और बताया कि वे इसकी सहायता से अरहर के पत्तियों को औषधि गुणों
से परिपूर्ण करते हैं.
झारखंड के
पारंपरिक चिकित्सक रसना जड़ी नामक वनस्पति से अरहर का उपचार करते हैं.
अंकुरण से लेकर 15 दिनों तक रसना जड़ी के घोल से अरहर के पौधों को
सिंचित किया जाता है और फिर जब पत्तियों की आवश्यकता होती है उन्हें एकत्र किया
जाता है और दवा के रूप में इस्तेमाल किया जाता है.
झारखंड के बहुत से
पारंपरिक चिकित्सक रसना जड़ी के साथ दूसरी वनस्पतियों का भी प्रयोग करते हैं.
उड़ीसा के गंधमर्दन
पर्वत के आसपास अपनी सेवाएं देने वाले पारंपरिक चिकित्सक बकचौड़ा की छाल से अरहर
को शिक्षित करते हैं और उसके बाद उसे बतौर औषधि इस्तेमाल करते हैं.
दार्जिलिंग
क्षेत्र के पारंपरिक चिकित्सक पहाड़ों पर उगने वाली जंगली सेम की एक प्रजाति का
उपयोग अरहर को औषधि गुणों से परिपूर्ण करने के लिए करते हैं.
अरहर का कैंसर में
प्रयोग उनके बीच आज भी लोकप्रिय है. वे कभी भी खेत से अरहर एकत्र नहीं करते हैं.
जल्दी पकने वाली
अरहर की तुलना में देर से पकने वाली अरहर का प्रयोग अधिक करते हैं.
विदर्भ क्षेत्र के
पारंपरिक चिकित्सक खम्हार और सागौन के सत्व से अरहर को सिंचित करते हैं और हमेशा
अरहर की ताजी पत्तियों का ही प्रयोग करते हैं.
कोंकण क्षेत्र के
पारंपरिक चिकित्सक वांडा नामक आर्किड की सहायता से अरहर के पौधे को दिव्य औषधि
गुणों से परिपूर्ण करते हैं और एक बार एकत्र करने के बाद साल भर उसका प्रयोग करते
रहते हैं.
राजस्थान के
पारंपरिक चिकित्सकों ने बताया कि वे ज्वांसा और क्या की सहायता से अरहर की सिंचाई
करते हैं और अरहर की पत्तियों को एकत्र करने के एक दिन पहले ही यह सिंचाई की जाती
है.
उनका मानना है कि 1 दिन में ही पत्तियों में आवश्यक गुण आ जाते हैं.
मैंने अपने अनुभव
से जाना है कि 1 दिन की बजाय यदि 1 सप्ताह पहले से अरहर के पौधों की सिंचाई की जाए
तो अच्छे परिणाम आते हैं और केंसर के लिए यह प्रभावी ढंग से काम करती है.
नेपाल के बहुत से
पारंपरिक चिकित्सक वाराहीकंद, ब्रम्हकमल और विधारा की सहायता से अरहर के पौधों को चिंचित
करते हैं और कैंसर के ऐसे मामले जिनमें सारी दवाएं असफल साबित होती हैं में अरहर
की पत्तियों का प्रयोग करते हैं.
वे विस्तार से अरहर
के पौधों को दिव्य औषधि गुणों से परिपूर्ण करने की विधि नहीं बताते हैं.
कुछ पारंपरिक
चिकित्सक सफेद कंटकारी को भी उपयोगी बताते हैं.
आंध्रप्रदेश के
बहुत से पारंपरिक चिकित्सक सफेद पलाश और लता पलाश से अरहर को सिंचित करने की बात
कहते हैं.
वे बताते हैं कि
नई पीढ़ी के पारंपरिक चिकित्सक अब इस तरह से अरहर के पौधों को दिव्य औषधि गुणों से
परिपूर्ण नहीं करते हैं पर पहले के जमाने में बिना इस विधि से अरहर को समृद्ध किए
बिना उपयोग नहीं किया जाता था.
सरगुजा के
पारंपरिक चिकित्सक महुआ और कुसुम के बांदा के माध्यम से अरहर को समृद्ध करते हैं.
मालवा क्षेत्र के
एक बुजुर्ग पारंपरिक चिकित्सक ने बताया कि वे कलिहारी और कुचला की सहायता से अरहर
के पौधों को औषधि गुणों से समृद्ध करने की विधि जानते हैं पर थोड़ी भी चूक होने पर
अरहर का पौधा विषाक्त हो जाता है इसलिए वह इसका प्रयोग कम ही करते हैं.
जिस दिन अरहर की
पत्तियों को एकत्र करना होता है उसके 1 सप्ताह पहले से उपचार शुरू होता है.
पूर्णिमा के स्थान
पर अमावस्या के दिन पत्तियों को तोड़ने और उपयोग करने की बात वे कहते हैं.
उड़ीसा और केरल के
बहुत से पारंपरिक चिकित्सकों ने अमावस्या के दिन अरहर की पत्तियों को एकत्र करने
की बात कही
गुजरात के
पारंपरिक चिकित्सक पूर्णिमा को अरहर की पत्तियां एकत करने का उपयुक्त समय मानते
हैं और किसी भी तरह का उपचार वे पूर्णिमा से ही शुरू करते हैं. कैंसर की चिकित्सा
में उनके नुस्खे बेहद कारगर होते हैं
मध्य भारत की युवा
पारंपरिक चिकित्सक से मुझे एक महत्वपूर्ण जानकारी मिली.
वे हर साल कुसुम
नामक वृक्ष की कोटर में जमा पहली वर्षा का जल एकत्र कर लेते हैं और फिर उसकी
सहायता से अरहर को औषधीय गुणों से परिपूर्ण करते हैं.
झारखंड के
पारंपरिक चिकित्सक भी इस विषय में गहरा ज्ञान रखते हैं.
वे पीपल, पाकर,
बरगद और कठपीपल नामक वृक्षों की कोटर से पहली वर्षा का जल एकत्र करते हैं और उसे
औषधि के रूप में भी प्रयोग करते हैं और साथ ही अरहर के लिए ही प्रयोग करते हैं.
बिहार के पारंपरिक
चिकित्सक भी इस तरह के प्रयोग से परिचित है.
वे पीपल, पाकर, बरगद
और कठपीपल के साथ कासनी और कुकरौंदा का प्रयोग करते हैं और दावा करते हैं इससे
अरहर के पौधे अधिक समृद्ध होते हैं.
मैंने उनके दावों का
परीक्षण किया है और उन्हें काफी हद तक सही पाया है.
उत्तराखंड के
पारंपरिक चिकित्सक लाल बूटी नामक वनस्पति का प्रयोग इस कार्य के लिए करते हैं पर
जब अरहर की पत्तियों के काढ़े से मरीज को कुल्ला करने के लिए कहा जाता है तब उसे
किसी भी रूप में दूध के सेवन की मनाही रहती है.
यह अपने आप में एक
अनोखी जानकारी है.
इसी तरह जब पंजाब
के पारंपरिक चिकित्सक सांवा नामक धान के खरपतवार का प्रयोग अरहर को औषधीय गुणों से
परिपूर्ण करने के लिए करते हैं तब रोगियों को किसी भी रुप में शराब के सेवन की
मनाही होती है.
उनका कहना है कि
शराब के सेवन से या किसी भी रुप में अल्कोहल के प्रयोग से चाहे वह होम्योपैथिक दवा
के रूप में ही क्यों न हो रोगी के कैंसर का फैलाव बहुत तेजी से होने लगता है.
छत्तीसगढ़ के
पारंपरिक चिकित्सक जब कडूकंद और उसकंद का प्रयोग अरहर के लिए करते हैं तब वे किसी
भी रूप में लौंग और इलायची के प्रयोग पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा देते हैं.
इसी तरह बालाघाट
के पारंपरिक चिकित्सक जब ऐंठी का प्रयोग अरहर के लिए करते हैं तब वह किसी भी रुप
में जमीन के अंदर उगने वाले कंदों के प्रयोग पर पाबंदी लगा देते हैं. (क्रमश:))
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