भगन्दर (Anal Fistula) की सफल पारम्परिक चिकित्सा पर पंकज अवधिया का शोधपरक आलेख
भगन्दर (Anal Fistula) की सफल पारम्परिक चिकित्सा पर पंकज अवधिया का शोधपरक आलेख
नीम की कोपल और
हल्दी की सहायता से भगंदर की चिकित्सा की बात प्राचीन ग्रंथों में लिखी हुई है.
इस छोटे से
फार्मूले के बारे में देशभर के पारंपरिक चिकित्सकों की राय जानने के लिए मैं सन 1990 से लगातार पारंपरिक चिकित्सा से मिल रहा हूं और
उनके विचारों का दस्तावेजीकरण कर रहा हूँ.
अब तक मैंने 18000 से भी अधिक पारंपरिक चिकित्सकों से इस सरल से
फार्मूले के बारे में पूछा है. मैंने इसे बहुत से रोगियों पर भी आजमाया है और इस
तरह इस फार्मूले के विषय में विस्तार से अनुभव हासिल किए हैं.
इनमें से कुछ
अनुभव इस लेख के माध्यम से मैं आपसे बांटना चाहता हूं.
बस्तर के बहुत से
पारंपरिक चिकित्सक नीम की कोपल और हल्दी की सहायता से भगंदर की सफल चिकित्सा करते
हैं पर वे अपने फार्मूले में 18 से लेकर 200
प्रकार की जड़ी
बूटियां मिलाते हैं.
उसके बाद ही
फार्मूले का प्रयोग करते हैं.
बस्तर के एक बुजुर्ग
पारंपरिक चिकित्सक ने बताया कि हल्दी के स्थान पर यदि जंगली हल्दी का प्रयोग किया
जाए तो यह फॉर्मूला ज्यादा प्रभावी होता है.
उन्होंने बताया कि
वे आसपास के जंगलों से जंगली हल्दी एकत्र करते हैं और फिर उसे फार्मूले में शामिल
करते हैं.
देश के दूसरे
हिस्सों में मिलने वाली जंगली हल्दी का प्रयोग वे नहीं करते हैं और पंसारी की
दुकान से भी भूलकर वे जंगली हल्दी नहीं खरीदते हैं.
औषधीय कीड़े
मकोड़े के प्रयोग में महारत रखने वाले पारंपरिक चिकित्सक आम के पेड़ों में मिलने
वाली लाल चींटी का प्रयोग इस फार्मूले में करते हैं.
उनका कहना है कि
इससे यह फार्मूला बहुत अधिक उपयोगी हो जाता है पर चींटी का उपयोग कम मात्रा में
किया जाना चाहिए.
सरगुजा के बहुत से
पारंपरिक चिकित्सक बस्तर के इस पारंपरिक चिकित्सक की बात से सहमत नहीं है और उनका
कहना है कि ऐसे रोगी जिन्हें एलर्जी की समस्या है उन्हें चींटी के प्रयोग से बचना
चाहिए.
1994
में जब पातालकोट के
एक पारंपरिक चिकित्सक से मेरी मुलाकात हुई और मैंने उनसे इस फार्मूले के बारे में चर्चा
की तो उन्होंने बताया कि वे इस फार्मूले में भारंगी का प्रयोग करते हैं और इससे यह
फार्मूला बहुत कम समय में भगंदर के इलाज में सफल होता है.
उड़ीसा के गंधमर्दन
पर्वत क्षेत्र के पारंपरिक चिकित्सक इस फार्मूले में रक्त विदार नमक कंद का प्रयोग करते हैं और साथ में 13 प्रकार की दूसरी जड़ी-बूटियां मिलाते हैं.
उसके बाद ही इसे रोगियों
को दिया जाता है.
वे कहते हैं कि
भगंदर के पुराने मामलों में यह फार्मूला ज्यादा सफल होता है.
कर्नाटक के
धारवाड़ क्षेत्र के पारंपरिक चिकित्सक विजयसार की छाल का प्रयोग इस फार्मूले में
करते हैं और उनका कहना है कि लंबे समय तक इस फार्मूले का प्रयोग भगंदर की चिकित्सा
के लिए नहीं करना चाहिए.
भगंदर की चिकित्सा
में महारत रखने वाले विदर्भ के बहुत से पारंपरिक चिकित्सक सागौन और साल नामक वृक्ष
की जड़ का प्रयोग इस फार्मूले में करते हैं और रोगियों को कहते हैं कि वे किसी भी
हालत में दूध का अधिक प्रयोग न करें.
वे इसके साथ बैंगन
के अधिक उपयोग से बचने की भी सलाह देते हैं.
रेंगाखार के बहुत
से पारंपरिक चिकित्सक जंगली हल्दी के स्थान पर काली हल्दी के प्रयोग पर जोर देते
हैं पर चूँकि काली हल्दी की उपलब्धता बहुत कम है इसलिए वे इसके विकल्प के रूप में
जंगली हल्दी का प्रयोग करते हैं.
वे साधारण हल्दी
के प्रयोग से बचते हैं क्योंकि उनका कहना है कि इससे उतना अधिक लाभ नहीं होता है.
वे इस बात को
जानते हैं कि साधारण हल्दी में कई तरह के रंग मिलाए जाते हैं जो कि रोगी को नुकसान
पहुंचा सकते हैं.
मध्य भारत के बहुत
से पारंपरिक चिकित्सक इस फार्मूले में तेलियाकंद नामक दुर्लभ कंद का प्रयोग करते
हैं.
तेलिया कंद को
अल्प मात्रा में ही फार्मूले में डाला जाता है और जब तेलिया कंद के इस फार्मूले का
प्रयोग किया जाता है तो रोगी को गुड़ के सेवन से बचने की सलाह दी जाती है.
आजकल बाजार में
तेलिया कंद के नाम पर भस्म कंद बेच दिया जाता है जोकि उतना अधिक लाभ नहीं करता है.
उनका कहना है कि
भगंदर के पुराने मामलों में जब सारी दवाएं बेकार हो जाती है तब तेलिया कंद का
प्रयोग इस फार्मूले में करने से रोगी को बहुत जल्दी आराम मिलता है.
छत्तीसगढ़ के
मैदानी भागों के पारंपरिक चिकित्सक धान के खेतों में उगने वाले सिरदर्द माने जाने
वाले खरपतवारों जैसे बदौर और सोमना का प्रयोग इस फार्मूले में करते हैं.
जब रोगी इस
फार्मूले का उपयोग करता है तो उसे पथ्य के रूप में लाल चावल खाने की सलाह दी जाती
है.
उत्तरी बंगाल के
पारंपरिक चिकित्सक भी इस फार्मूले के साथ लाल चावल खाने की सलाह देते हैं जबकि
मणिपुर के पारंपरिक चिकित्सा इस फार्मूले के साथ काले चावल की विशेष किस्म को खाने
की सलाह देते हैं.
मैंने अपने अनुभव
से यह जाना है कि इसके साथ भेजरी नामक औषधीय चावल का प्रयोग बहुत लाभकारी है.
यह औषधीय चावल आज
भी छत्तीसगढ़ के किसानों के पास आपको मिल सकता है.
उड़ीसा के
नियमगिरी क्षेत्र के पारंपरिक चिकित्सक इस फार्मूले में कई प्रकार के जंगली आर्किड
के सत्व को मिलाते हैं जिससे कि यह फार्मूला सही मायनों में लाभकारी सिद्ध होता है.
वे इस फार्मूले के
बारे में विस्तार से आम लोगों को नहीं बताते हैं और फार्मूले में मिलाए जाने वाले
घटकों की पहचान छुपाने के लिए कई तरह की दूसरी वनस्पतियां भी मिला देते हैं जिनका
भगंदर की चिकित्सा से कोई मतलब नहीं होता है.
मालवा क्षेत्र के
पारंपरिक चिकित्सक फार्मूले में बावची के प्रयोग के पक्षधर है पर मेरा अपना अनुभव
है कि बावची के प्रयोग से गले के कई प्रकार के रोग पैदा हो जाते हैं इसलिए इसका
प्रयोग बहुत संभलकर करना चाहिए.
मालवा क्षेत्र के
पारंपरिक चिकित्सक खेतों में खरपतवार की तरह उग रही बावजी के पौधों और बीजों के
प्रयोग पर जोर देते हैं क्योंकि उनका मानना है कि खेती से तैयार की गई बाउची में औषधीय
गुण कम होते हैं.
हिमालय क्षेत्र
में उगने वाली बावची का प्रयोग भी वे इस फार्मूले में नहीं करते है.
बावची के स्थान पर
चरोटा का प्रयोग किया जा सकता है.
इससे असर कम होता
है पर गले की कोई समस्या नहीं होती है.
इसे अधिक मात्रा
में भी फार्मूले में शामिल किया जा सकता है.
चरोटा बेकार जमीन
में उगने वाला एक खरपतवार है जो कि भारत के सभी स्थानों पर आसानी से मिल जाता है.
इसे चकवड़ या चकोड
भी कहा जाता है.
आम तौर पर इस
फार्मूले में इसके बीजों का प्रयोग किया जाता है पर बस्तर के पारंपरिक चिकित्सक
इसकी जड़ को बीजों से अधिक उपयोगी मानते हैं.
जड़ो का एकत्रण
फूल आने से पहले किया जाता है.
फूल आने के बाद
एकत्र की गई जड़ों को औषधि रूप से सही नहीं माना जाता है
झारखंड के बहुत से
पारंपरिक चिकित्सक कुटज की छाल का प्रयोग इस फार्मूले में करते हैं पर मैंने अपने
अनुभव से जाना है कि मधुमेह के रोगियों के लिए कुटज की छाल का प्रयोग हानिकारक हो सकता है इसलिए ऐसे
रोगी जिन्हें कि मधुमेह के साथ में भगंदर का रोग हो उन्हें इस फार्मूले के प्रयोग
से बचना चाहिए.
निमाड़ क्षेत्र के
पारंपरिक चिकित्सक इस फार्मूले में 50 प्रकार के जंगली कंदों का प्रयोग करते हैं.
इस क्षेत्र के
चिकित्सक भगंदर की पारंपरिक चिकित्सा में दक्ष माने जाते हैं.
वे साल में एक बार
फॉर्मूला तैयार कर उसे साल भर उपयोग करने की बजाय हर बार ताजा फार्मूला तैयार करते
हैं और अपने रोगियों को देते हैं.
उड़ीसा के बहुत से
पारंपरिक चिकित्सक हल्दी के स्थान पर सत्यानाशी का प्रयोग करते हैं पर मैंने अपने
अनुभव से जाना है कि सत्यानाशी का प्रयोग लीवर के लिए हानिकारक हो सकता है इसलिए
इसके प्रयोग से बचना चाहिए या इसका प्रयोग कुशल चिकित्सक के मार्गदर्शन में ही
करना चाहिए.
तेलंगाना के
पारंपरिक चिकित्सक जब सत्यानाशी का प्रयोग इस फार्मूले में करते हैं तो साथ में वे
सफेद कंटकारी का प्रयोग भी करते हैं.
उनका कहना है कि
सफेद कंटकारी की उपस्थिति सत्यानाशी के दोषों को समाप्त कर देती है.
इनमें से बहुत से
पारंपरिक चिकित्सा इसमें हल्दी का प्रयोग भी साथ में करते हैं और इस तरह वे भगंदर
की चिकित्सा करते हैं.
90 के दशक में मंडला की यात्रा के दौरान बहुत से
पारंपरिक चिकित्सकों ने बताया कि साल के व्रक्षों में होने वाले साल बोरर को
सुखाकर चूर्ण के रूप में फार्मूले में डालने से भी लाभ होता है.
यह जानकारी देश के
दूसरे पारंपरिक चिकित्सकों को नहीं है.
अकादमिक दृष्टिकोण
से यह एक महत्वपूर्ण जानकारी है.
बंगाल के बहुत से
पारंपरिक चिकित्सक इस फार्मूले में करंज का प्रयोग करते हैं.
वे करंज की अंदर
की छाल का प्रयोग करते हैं.
मैंने अपने अनुभव
से पाया है कि करंज के स्थान पर कटकरंज का प्रयोग ज्यादा लाभकारी है.
यह रक्त को साफ
करता है और इस तरह रोगी को रोग से मुक्त होने में मदद करता है.
उत्तराखंड के
पारंपरिक चिकित्सक नीम के सभी भागों का प्रयोग इस फार्मूले में करते हैं, वे केवल
नीम की पत्तियों का ही प्रयोग नहीं करते हैं.
बस्तर के पारंपरिक
चिकित्सक नीम
के इस तरह के
प्रयोग के पक्षधर नहीं है.
उनका कहना है कि नीम
के सभी भागों का एक साथ प्रयोग करने से मनुष्य में नपुंसकता पैदा हो सकती है और
नाना प्रकार के विकार भी पैदा हो सकते हैं.
इसलिए केवल नीम की
कोपल और हल्दी का प्रयोग और उसके साथ दूसरी वनस्पतियों का प्रयोग करके भगंदर की
सफल चिकित्सा की जा सकती है मैं उनके विचारों से सहमत हूं.
छत्तीसगढ़ के
रायगढ़ क्षेत्र के पारंपरिक चिकित्सक नीम की कोपल का जब एकत्रण करते हैं तब वह ऐसे
नीम के वृक्षों को चुनते हैं जो कि पुराने होते हैं.
नए वृक्षों को वे प्राथमिकता
नहीं देते हैं.
ऐसे नीम के वृक्ष
जो मद की अवस्था में हो अर्थात उनमें से पानी निकल रहा हो का चुनाव औषधि के एकत्रण
के लिए नहीं किया जाता है.
उड़ीसा और
छत्तीसगढ़ के बहुत से पारंपरिक चिकित्सक नीम के मद का प्रयोग भी इस फार्मूले में
करते हैं पर ऐसा करने वाले चिकित्सक बहुत कम है.
कांकेर क्षेत्र के
पारंपरिक चिकित्सा दतरेंगा नामक वनस्पति का प्रयोग इस फार्मूले में करते हैं पर
मेरा मानना है कि इसके स्थान पर यदि केवटी विशेषकर लाल केवती का प्रयोग किया जाए
तो यह फार्मूला अधिक कारगर हो सकता है.
आंध्रप्रदेश के
बहुत से पारंपरिक चिकित्सक इस फार्मूले में लता पलाश का प्रयोग करते हैं जिसे कि छत्तीसगढ़
में बोदल कहा जाता है.
मैंने अपने अनुभव
से इस प्रयोग को अधिक लाभकारी नहीं पाया है.
ऐसे पारंपरिक
चिकित्सक जो इस फार्मूले में चरोटा के बीजों का प्रयोग करते हैं वे अल्पमात्रा में सरफोक के बीजों का भी प्रयोग
करते हैं.
इससे चरोटा के
बीजों की कार्यक्षमता बढ़ जाती है.
मैंने अपने अनुभव
से पाया है कि यदि इसमें जंगली मूंग को भी शामिल कर दिया जाए तो यह फार्मूला और
अधिक कारगर हो जाता है.
जंगली मूंग धान के खेतों में या उसके आसपास की मेड़ों में खरपतवार की तरह उगते हुए देखा जा
सकता है. (क्रमश:)
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के बीस कारगर पर सरल नुस्खों के बारे में लाभान्वित हुए रोगियों के अनुभव के
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