औषधीय फसल कस्तूरी भिण्डी (एबेलमॉस्कस मॉस्केटस) की वर्तमान दशा और दिशा: मेरे अनुभव
औषधीय फसल कस्तूरी भिण्डी (एबेलमॉस्कस मॉस्केटस) की वर्तमान दशा और दिशा: मेरे अनुभव
पंकज अवधिया,
वनौषधी विशेषज्ञ,
28-अ, गीता नगर, रायपुर (छत्तीसगढ़)
हम सभी जानते हैं कि कस्तूरी हिमालय में पाये जाने वाले एक विशेष प्रकार के हिरण की नाभि से प्राप्त होती है। कस्तूरी का प्रयोग आदि काल से बतौर औषधि और इत्रा में होता रहा है। सारी दुनिया इसकी खुशबू की दिवानी है। इस दिवानेपन के कारण जब इस कस्तूरी की प्राप्ति के लिए इन हिरणों का बड़े पैमाने पर शिकार आरंभ हुआ तो उनकी संख्या घटने लगी। आज ये विलुप्तता के कगार पर खड़े हैं। अब इनसे कस्तूरी के एकत्रण पर प्रतिबंध लग गया है। यद्यपि इन हिरणों के संरक्षण और संवर्धन के प्रयास किये जा रहे हैं पर ये उतने सफल नहीं है। जब भी इस तरह मूल औषधीयों की कमी पड़ती हैं तो बाजार रूकता नहीं है और जल्दी ही इनके विकल्पों की खोज आरंभ हो जाती है। यूं तो वैज्ञानिकों और उद्यमियों ने बहुत से पौधों में कस्तूरी की गंध प्राप्त की पर व्यवसायिक दृष्टि से कस्तूरी भिण्डी का नाम ही सामने आया। भिण्डी को हम सब्जी की फसल के रूप में अच्छे से जानते हैं। भारतीय वनों में कई प्रकार की जंगली भिण्डियाँ उगती हैं। जिनमें से सभी का प्रयोग औषधि और अन्य व्यवसायिक कार्यों में होता है। उदाहरण के लिए वन भिण्डी का उपयोग गुड बनाते समय अशुद्धियों को साफ करते समय होता है। बहुत तरह की भिण्डियां ग्रामीण और वनीय क्षेत्रो में साग के रूप में खाई जाती है जबकि फलियों का प्रयोग कच्चे रूप में ही नाश्ते के रूप में होता है। भारतीय वनों में कस्तूरी भिण्डी भी जंगली प्रजाति के रूप में पाई जाती है। है के स्थान पर थी का प्रयोग ज्यादा उचित जान पड़ता है। अत्यधिक दोहन के कारण अब वनों में इसे आसानी से प्राप्त कर पाना संभव नहीं जान पड़ता है। कस्तूरी भिण्डी की बढ़ती मांग और वनों में इसकी घटतीउपलब्धता ने विशेषज्ञों को इसे एक उपयोगी औषधि एवं सगंध फसल के रूप में प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित किया। इस पर व्यापक अनुसंधान किये गये और इसकी कृषि की उन्नत तकनीके विकसित की गई। आमतौर पर कस्तूरी भिण्डी के बीजों का प्रयोग कस्तूरी के वैकल्पिक श्रोत के रूप में किया जाता है। कस्तूरी भिण्डी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एम्ब्रेट के नाम से जाना जाता है। भारतीय बाजार में कस्तूरी (मुश्क) के आधार पर मुश्क दाना या कस्तूरी भिण्डी कहा जाता है। देश के अलग-अलगहिस्सों में इसे स्थानीय नामों से जाना जाता है। आमतौर पर इसके बीजों का प्रयोग इत्र, सौन्दर्य प्रसाधन आदि उद्योगों में होता है। इसे सुगंध के लिए चाय उत्पादों में तम्बाकू उत्पादों और विभिन्न तरह की औषधियों में भी डाला जाता है। बीजों में जितनी अधिक सुगंध होती है उतनी ही ज्यादा उसमें एम्ब्रेट आईल की मात्रा होती है। अधिक एम्ब्रेट आईल अर्थात अधिक मूल्य की प्राप्ति। कस्तूरी भिण्डी पर सफलता पूर्वक किये गये प्रयोगों से उत्साहित होकर विशेषज्ञों द्वारा किसानों के सामने इसे व्यवसायिक फसल के रूप में रखा गया। कस्तूरी भिण्डी की फसल को छोटे और मध्यम किसानों के लिए उपयुक्त माना जाता है। प्राकृतिक परिस्थितियों में कस्तूरी भिण्डी बिना किसी देख भाल के विपरीत वातावरणीय परिस्थितियों में भी उगते हैं। अत: इसकी खेती कम देख भाल के की जा सकती है। यदि इसे अधिक उपजाऊ मिट्टी में बोये तो निश्चित ही इससे पौधों की वृद्धि पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है और अधिक उपज प्राप्त होती है। अत: किसानों को उपजाऊ जमीन का चयन करना चाहिए।
आमतौर पर इसे खरीफ फसल के रूप में लगाया जाता ह। इसकी वर्षा आधारित खेती की जाती है। मई-जून में खेत तैयार किये जाते हैं और पहली वर्षा के तुरंत बाद इसकी बुआई कर दी जाती है। यह एक170 से 180 दिनों की फसल है। देश के बहुत से हिस्सों में विशेषकर दक्षिण भारत में अनुसंधानों में यह पाया गया है कि कस्तूरी भिण्डी की एक वर्ष में 2 फसल भी ली जा सकती है। पहली बार इसे जून-जुलाई में लगाया जाता है। जबकि दूसरी फसल अक्टूबर-नवम्बर में ली जाती है।
यद्यपि सभी प्रकार की औषधीय एवं सुगंध फसलों का व्यवसायिक खेती में जैविक विधियों के प्रयोग पर जोर दिया जाता है। पर कस्तूरी भिण्डी की खेती बिना किसी समझौते के जैविक विधि से ही की जानी चाहिए। आप जानते ही है कि भिण्डी की फसल में नाना प्रकार के कीटों और रोगों का आक्रमण होता है। भिण्डी उत्पादक तो आधुनिक कृषि रसायनों का प्रयोग कर इन पर नियंत्राण प्राप्त कर लेते हैं। पर कस्तूरी भिण्डी की खेतमें यह संभव नहीं हो पाता है। आधुनिक रसायनों के प्रयोग से कीट और रोग नियंत्रिात तो हो जाते हैं पर कस्तूरी भिण्डी के बीज अपनी स्वभाविक गंध खो बैठते हैं जिसके कारण इनका बाजार मूल्य कम हो जाता है। यह घाटे की खेती साबित होती है। यही कारण है किविशेषज्ञों ने अलग-अलग भौगोलिक परिस्थितियों में उपलब्ध जैविक आदानों के आधार पर इनकी जैविक खेती की विधियां विकसित की हैं। जैविक आदान के रूप में कस्तूरी की खेती का प्रयोग भी अधिक लाभदायी माना जाता है। संदर्भ साहित्य उन वैज्ञानिक अनुमोदनों से भरे पड़े हैं जोकि इसकी व्यवसायिक खेती में उचित मात्रा में रसायनिक उर्वरकों केप्रयोग के हिमायती है। रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग निश्चित ही उपज में वृद्धि करता है। यह प्रयोग खेती को खर्चीला बना देता है। बीज की यह वृद्धि जैविक आदानों की सहायता से भी प्राप्त की जा सकती है। कस्तूरी भिण्डी के सभी पौधे भागों का औषधि के रूप में प्रयोग करने वाले पारंपरिक चिकित्सक भूलकर भी रसायनिक उर्वरकों से तैयार पौधों का प्रयोग नहीं करते हैं। इनका मानना है कि औषधिय गुणों में भारी कमी हो जाती है और लाभ के स्थान पर हानि भी उठानी पड़ सकती है। उनके इस अनुभव की वैज्ञानिक पुष्टि की आवश्यकता है।
यदि संभव हो तो किसान उन स्थानों पर कस्तूरी भिण्डी की व्यवसायिक खेती से बचें जहां आस-पास सब्जियों के फसल ली जा रहीं हो। ऐसे स्थानों पर कीटों और रोगों के आक्रमण की संभावना कई गुना अधिक होते है। कई तरह की रक्षक फसलों को चारों ओर लगाकर हानिकारक कीटों को इस फसल से दूर रखा जा सकता है। यदि किसानों के खेतों में नीम और कर्रा जैसे वृक्ष है तो वे काफी हद तक कीटों को दूर कर सकते हैं। कर्रा नामक वृक्ष की शाखों को फसल के पीछे और किनारों में गाडकर चूसक कीटों से सुरक्षा पाई जा सकती है। अतिरिक्त आय की दृष्टि से देखा जाए तो फसल के चारों ओर गेंदे और सदा सुहागन जैसेसजावटी पौधों की 5 से 8 पक्तियां लगाई जा सकती है। ये दोनों ही पौधे प्रक्षेत्रा की सुन्दरता बढ़ा देते हैं। ये कीटों को रोकने में सक्षम हैं। कई तरह के सूत्रा कृमियों के लिए गेंदे को बहुत अधिक उपयोगी पाया गया है। जून-जुलाई में लगाये गये गेंदे के पौधों से उस समय फूलों की प्राप्ति होती है जब त्यौहारों का मौसम होता है। इन फलियों को एकत्रिात कर समीप के बाजार में बेचकर किसान अतिरिक्त लाभ अर्जित कर सकते हैं। बड़े फूलों वाली संकर जातियों की तुलना में देशी गेंदे कीट सुरक्षा की दृष्टिकोण से अधिक उपयोगी साबित होता है। रक्षक फसलों और मुख्य फसल को साथ-साथ लगाने की बजाय रक्षक फसलों को कुछ पहले लगाया जाना चाहिये ताकि प्रारंभ से ही अच्छी सुरक्षा हो सके। यदि किसान पारिवारिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से रक्षक फसल का उत्पादन करना चाहते हैं तो कालमेघ से बेहतर कोई विकल्प नहीं है। कड़वों का राजा कहे जाने वालेकालमेघ में कीटों को दूर करने की अपूर्व क्षमता होती है। इसके पौधों से तैयार काढ़े के प्रयोग से किसान अपने और अपने परिवार को मलेरिया जैसे घातक रोगों से सुरक्षित रख सकते है। कालमेघ केवल कस्तूरी भिण्डी की रक्षा करने में सक्षम नहीं है। यदि आप अपने परिक्षेत्र में बाड़ के साथ-साथ कालमेघ की कई पंक्तियों का रोपण करें तो आपके पूरे प्रक्षेत्र की रक्षा हो सकती है। कस्तूरी भिण्डी की खेती में गोबर की खाद काप्रयोग करें। गोबर की खाद डालते समय इसमें नीम के घोल की पर्याप्त मात्रा भी मिला दें। इसमें लाभकारी सूक्ष्म जीवों को चूर्ण के रूप में मिश्रित भी किया जा सकता है। कस्तूरी भिण्डी की फसल में समय-समय पर अनावश्यक खरपतवारों को उखाड़ने की आवश्यकता होती है। इसमें खरपतवार नाशियों का उपयोग नहीं किया जा सकता है। इन्हें हाथ सेउखाड़ा जाता यांत्रिक विधियों का प्रयोग किया जाता है। जोकि बहुत मंहगी साबित होती है। आम तौर पर हर 10 से 15 दिनों के अंतराल में खरपतवारों को उखाड़ने की आवश्यकता होती है।
देश के उन क्षेत्रो में जहां मई-जून में बहुत तेज गर्मी पड़ती है इस ऊंचे तापक्रम का लाभ उठाते हुए किसान मृदा सौरीकरण की तकनीक अपना सकते हैं। इस विधि में सूर्य के तापक्रम के प्रयोग से कीटों के अण्डारोगाणुओं और खरपतवारों के बीजों को नष्ट किया जाता है। यह विधि काफी सस्ती और प्रभावी है। यदि आप उन खेतों में कस्तूरी भिण्डी कीखेती कर रहें हैं जिनमें पहले इसकी खेती हो चुकी है या इसके कुल की दूसरी फसले लगाई गई थी तब तो आप मृदा सौरीकरण का प्रयोग अवश्य ही करें। समीप के कृषि अनुसंधान केन्द्रों में जाकर आप इस पर्यावरण मित्रा विधि के विषय में संपूर्ण जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। गोबर के घोल, गोमूत्रा और नीम के अलावा कालमेघ और कर्रा जैसी वनस्पतियों के मिश्रण से तैयार ग्रीनस्प्रे नामक घोल के प्रयोग से भी फसल की विभिन्न अवस्था में न केवल कस्तूरी भिण्डी को अधिक वृद्धि प्रदान की जा सकती है बल्कि कीटों और रोगों से भी बचाया जा सकता है। इस घोल को तैयार करने में एक महीने का समय लगता है। अत: किसान लगातार इस घोल को बनाते रहे ताकि फसल की कटाई तक घोल की उपलब्धता बनी रहे। कस्तूरी भिण्डी के बीजों के उपचार के लिए रासायनिक कवक नाशियों के स्थान पर इस घोल का प्रयोग किया जा सकता है। आरंभिक प्रयोगों में इस घोल के प्रयोग से अंकुरण में बहुत अधिक वृद्धि देखी गई है। यह घोल नये पौधों को ओजवान भी बनाता है। आमतौर पर सप्ताह में एक बार इस घोल के छिड़काव की अनुशंसा की जाती है। पर अधिक नम मौसम में जबकि कीटों और रोगों के आक्रमण की संभावना अधिक होती है आवश्यकतानुसार 2 से 3 दिनोके अंतराल में भी इसका प्रयोग किया जा सकता है। कस्तूरी भिण्डी की फसल में बार-बार मित्रा कीटों को छोड़कर भी शत्राु कीटों से निपटा जा सकता है। लेडीबर्ड बीटल का प्रयोग किसानों के खेतों में किये गये परीक्षणों में काफी उपयोगी पाया गया है।
कस्तूरी भिण्डी के बीजों को खरीदने से पहले किसान भाई सुनिश्चित करें कि यह बीज जैविक विधि से तैयार किये गये हों। बीजों में यूं तो अंकुरण की समस्या नहीं होती है। एक हैक्टेयर में एक किलो बीज लगते हैं पर 100 बीजों को अंकुरित कर किसान अंकुरण प्रतिशत जान सकते हैं। अंकुरण प्रतिशत कम होने पर उसी अनुपात में बीज दर बढ़ाई जा सकती है। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि बीजों को उपलब्ध कवक नाशियों के अलावा जैविक आदानों की सहायता से भी उपचारित किया जा सकता है। बीजों को छिटककर और कतार में दोनों ही विधियों से लगाया जा सकता है। छिटकाव विधि अधिक उपयोगी नहीं मानी जाती है। कतार में बीजों को लगाकर स्थान-स्थान पर अंकुरण न होने की दशा में खालीस्थानों पर बीजों का फिर से बोया जा सकता है। फसल की किसी भी अवस्था में पानी का जमाव नहीं होना चाहिए। अधिक वर्षा की स्थिति में जल निकासी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए। फसल में यूं तो बुवाई के 75 दिन के बाद फूल आने लग जाते हैं और इसके 3 से 4 दिनों के बाद बीज बनने लग जाते हैं पर फूल का आना और बीजों का बनना अलग-अलग पौधों में अलग-अलग समय पर होता है जिससे कई बार बीजों का एकत्राण करना पड़ता है। सही समय पर बीजों का एकत्राण न करने से फलों से फटकर बीज नीचे गिर जाते हैं। इस फसल की अवधि170 से 180 दिनों की होती है। बीजों का एकत्राण 20-25 बार किया जाताहै। कस्तूरी भिण्डी की एक भी उन्नत किस्म उपलब्ध नहीं है। भविष्य में इसकी उन्नत किस्म विकसित करने की बात सोच रहे वैज्ञानिक इस तथ्य पर जोर देवें कि सभी पौधों में एक ही समय पर पुष्पन हो और बीज बने ताकि बार-बार बीजों के एकत्राण में होने वाले खर्च को कम किया जा सके। यूं तो विपरीत वातावरणीय परिस्थितियों में भी कस्तूरी भिण्डी कुछ न कुछ उपज अवश्य देती है। पर अधिक उपज देने वाली किस्मों की आवश्यकता किसान अक्सर महसूस करते रहते हैं। सिंचित अवस्था में जैविक खेती से 9 से 10 क्वि0 की उपज प्राप्त होती है। यद्यपि बीजों से एम्ब्रेट आईल निकालना कठिन नहीं है परन्तु फिर भी आमतौर पर किसान खेती तक ही सीमित रहना चाहते हैं। वे बीजों को छोटे व्यापारियों के पास बेच देते हैं जिनसे बीज कई माध्यमों से बड़े शहरों केव्यापारियों तक पहुंच जाते हैं। इससे किसानों को अधिक कीमत नहीं मिल पाती है। यदि समर्पित गैर सरकारी या सरकारी संगठन सामने आयें और कस्तूरी भिण्डी उत्पादक, और नव उद्यमियों को प्रसंस्करण इकाईयां स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित करें तो निश्चित ही नव उद्यमियों और किसानों दोनों को बहुत अधिक लाभ हो सकता है।
बतौर वनस्पति विशेषज्ञ मैं कस्तूरी भिण्डी का भविष्य उज्जवल मानता हूँ क्योंकि अभी तक इसके सरल विकल्पों की तलाश नहीं हो पाई है। कस्तूरी का बाजार कस्तूरी भिण्डी के इर्द-गिर्द ही बना हुआ है। फलस्वरूप इसकी लगातार मांग बनी हुई है। किसान भाईयों को चाहिये कि शीघ्र ही इसकी खेती के गुर सीखे और जैविक विधि से उत्पादन आरंभ करें।
For your queries on Indian Medicinal and Aromatic crops you can write to Pankaj Oudhia at pankajoudhia@gmail.com Please write "Consultation" as subject.
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