औषधीय फसल बच (एकोरस कैलामस) की वर्तमान दशा और दिशा- मेरे अनुभव

औषधीय फसल बच (एकोरस कैलामस) की वर्तमान दशा और दिशा- मेरे अनुभव

पंकज अवधिया,
वनौषधी विशेषज्ञ,
रायपुर (छत्तीसगढ़)

          नवगठित राज्य छत्तीसगढ़ में धान की खेती से लगातार हो रहे नुकसान को देखते हुए जब विषय विशेषज्ञों और कृषि वैज्ञानिकों ने बतौर विकल्प नई फसलों की खोज प्रारंभ की तो उन्हें अधिक लाभ देने वाली बहुत सी फसलों के विषय में जानकारियाँ मिली। इसमें से अधिकतर फसल धान के खेतों में नहीं लगाई जा सकती थी। जिसके कारण इन नयी फसलों को अपनाने के लिए धान के खेतों को नये रूप में परिवर्तित करने की आवश्यकता थी। किसान इसके लिए कतई तैयार नहीं थे। ऐसे विकट समय से राज्य के एक प्रगतीशील किसान श्री दीन दयाल वर्मा नेउम्मीद की नई किरण दिखाई। श्री वर्मा काफी लंबे समय से नाना प्रकार की औषधीय एवं सगंध फसलों की खेती कर रहे थे। जिनमें औषधीय फसल बच भी शामिल थी। एक समय तो बच की खेती में उत्पादन औरक्षेत्रो के आधार पर वे अग्रणी बच उत्पादकों में से थे। उन्होंने अपने साधारण प्रयोगों में पाया कि न केवल धान के खेतों में मुख्य फसल केरूप में बच की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। बल्कि इसे धान के साथ भी लगाया जा सकता है। उनके इस प्रयोग को विभिन्न वैज्ञानिक मंचों पर मान्यता मिली और अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान,फिलीपिंस ने भी इस अनूठे प्रयोग को मान्यता दी। इसके बाद बच के प्रचार-प्रसार का कार्यक्रम आरंभ हुआ और बड़े क्षेत्रो में इसकी खेती होने लगी 
बतौर औषधि बच को प्राचीन चिकित्सा ग्रंथों में सम्माननीय स्थान प्राप्त है। यूं तो इसके सभी भागों का प्रयोग बाहरी और आंतरिक तौर पर अकेले और अन्य वनौषधियों के साथ दसों प्रकार की बीमारियों के इलाजमें होता है पर कई बार इसके कंदों का प्रयोग ही औषधि के रूप में होता है। आयुर्वेद में कंदों के आंतरिक और बाहरी प्रयोग का विस्तृत विवरण मिलता है। बचपन में बच्चों की तुतलाहट दूर करने के अलावा विभिन्न प्रकार के मानसिक रोगों एवं मेघा शक्तिवर्धक के रूप में भी बच का प्रयोग पीढ़ियों से भारतीय समाज में होता आया है। बच के सूखे कंदों से एक विशेष प्रकार के तेल की प्राप्ति होती है जिसे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कैलेमस आईल के रूप में जाना जाता है। इस तेल की राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में अच्छी मांग है। तरह-तरह के आधुनिक भोज्य सामग्रियों में स्वाद और सुगंध बढ़ाने के उद्देश्य से इस तेल का उपयोग किया जाता है। इस कंद का प्रयोग कई प्रकार के एल्कोहलिक पेयों के निर्माण में भी होता है। विभिन्न फसलों की जैविक खेती कर रहे किसानों के लिए बच का पौधा एक महत्वपूर्ण जैविक आदान है। इसकी पत्तियों को जलाने से निकलने वाला वाष्पशील तेल पूरे वातावरण में फैल जाता है। बहुत सी महत्वपूर्ण फसलों को नाना प्रकार के कीटों और रोगों से बचाने के लिए बतौर रक्षक फसल बच का प्रयोग किया जाता है। इसकी कई पक्तियां मुख्य फसल के चारों ओर लगा दी जाती हैजहां खेत कीनिकासी का पानी जमा रहता है। जैविक खेती कर रहे देश के कई भागों के कृषकों ने बच पर आधारित विभिन्न जैविक उत्पाद बनाये हैंजिनकी सहायता से धानगेहू जैसी खाद्यान्न फसलों के उन कीटों पर भी नियंत्राण पाया जा सकता है जोकि महंगे कृषि रसायनों से नष्ठ नहीं होते हैं। आधुनिक अनुसंधान से पता चला है कि बच की गृह उद्यानों में उपस्थिति वातावरण को सूक्ष्म जीवों से मुक्त रखती है और प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्षतौर पर मनुष्य के स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव डालती है। बच की उपस्थिति मच्छरों के प्रकोप को भी कम करती है। पीढ़ियों से  हमारे बुजुर्ग कपड़ों के साथ बच के सूखे कंदों को कीटों से बचाने के लिए रखते आये हैं। अन्न की रक्षा में भी बच का प्रयोग इसी तरह किया जाता है। तंत्रा और मंत्रा में विश्वास रखने वाले बच को बहुत महत्वपूर्ण पौधा मानते हैं। दुष्ट आत्माओं के नियंत्राण के लिए विभिन्न अवसरों पर इनकी पत्तियों को जलाते हैं। इसकी तेज गंध बदहवास लोगों को सामान्य स्थिति में ला देती है। भले ही आधुनिक वैज्ञानिक इसे मान्यता न देपर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर देखा जाए तो विभिन्न मानसिक रोगों में आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों द्वारा इसका प्रयोग तंत्र मंत्र में इसके प्रयोग की सफलता की पुष्टि करते हुए दिखता है। छत्तीसगढ़ के विभिन्न भागों में किये गये वानस्पतिक सर्वेक्षणों में मैनें पाया है कि माला के रूप में बच के कंदों के छोटे-छोटे टुकड़ों का प्रयोग भी कई पारंपरिक चिकित्सक करते हैं। तरह-तरह के रोगों से प्रभावित रोगियों को इसे पहनने की सलाह दीजाती है। यह ध्यान रखा जाता है कि कंदों के टुकड़ों का संपर्क शरीर से बना रहें। मानसिक रोगों की उग्र अवस्था में यह माला काफी प्रभावी ढंग से कार्य करती है। रात को ढोल बजाने के बाद थके मांदे आदिवासियों के लिए विभिन्न पेड़ों की पत्तियोँ और वनस्पतियों की सहायता से जो बिछावन तैयार किया जाता है उसमें बच की पत्तियों का भी प्रयोग होता है। पारंपरिक  चिकित्सक मानते हैं कि कम मात्रा में बच को मात्रा सूंघने से ही शरीर में नव स्फूर्ती का संचार होता है। आंतरिक तौर पर भी इसका कम मात्रा में सेवन लाभदायी होता है। अधिक मात्रा में सेवन से उल्टी आरंभ हो जाती है। यही कारण है कि विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में ही इसके प्रयोग की सलाह दी जाती है।
          आम तौर पर बच को दो प्रकारों में बांटा जाता हैएक मीठी बच और दूसरी कड़वी बच। मीठी बच को बच ही कहा जाता है पर कड़वी बच को घोड़ बच भी कहते हैं। आधुनिक संदर्भ साहित्य बच के नाम परएकोरस कैलामस का ही बखान करते हैं। जबकि देश के बहुत से हिस्सों में जिसमें छत्तीसगढ़ भी शामिल है में बच की एक और दुर्लभ जाति ऐकोरस ग्रेमीनियसस पाई जाती है। इस प्रजाति के बच के पौधों की पत्तियों में मध्य शिरा नहीं होती है। पारंपरिक चिकित्सक इसे सामान्य जाति से अलग मानते हैं और ऐसी विकट परिस्थितियों में इसका प्रयोग करते हैं जहां साधारण बच अपना प्रभाव दिखाने में नाकाम साबित होती है। एक ओर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों के लिए वनों से बच का एकत्रण होता है वहीं बच की इस दुर्लभ जाति के विषय में आम लोगों को बहुत ही कम जानकारी है। यह जानकारी पारंपरिक चिकित्सकों तक ही सीमित है। वे आम लोगों को विशेषकर चतुर व्यापारियों को इसके विषय में नहीं बताते हैं क्योंकि उन्हें डर है कि इससे इस दुर्लभ जाति केअस्तित्व पर कहीं खतरा न मंडराने लगे। विश्व भर में साधारण बच पर वृहद् शोध हुये हैं पर इस दुर्लभ जाति पर न के बराबर शोध किये गये हैं। छत्तीसगढ़ के पारंपरिक चिकित्सक इसके विविध प्रयोगों के विषय में न केवल जानते हैं बल्कि समय-समय पर इसका प्रयोग भी करते हैं।
          प्राकृतिक परिस्थितियों में बच दलदली इलाकों में उगती है। यद्यपि यह सूखा सहन कर लेती है पर आम तौर पर इसे सूखे स्थानों पर उगते नहीं देखा जा सकता है। प्राकृतिक परिस्थितियों में कई प्रकार के कीटों का आक्रमण बच पर होता है। यह सुखद आश्चर्य का विषय है कि बच पर पोषण करने वाले कीटों का प्रयोग देश के बहुत से हिस्सों में बतौर औषधि कीट होता है। चिकित्सक मानते हैं कि जब ये कीट बच पर आश्रित होते हैतो वे केवल बच के अच्छे गुणों को ही लेते हैं और दुर्गुणों को छोड़ देते हैं इसलिए कई मायनों में इन कीटों को बच की तुलना में अधिक उपयोगी माना जाता है। जो किसान बच की खेती करना चाहते हैंउन्हें अन्य वनोषधियों की तरह ही वनों में जाकर बच को प्राकृतिक परिस्थितियों में उगते देखने की सलाह दी जाती है। जैसा पहले बताया गया है कि बच प्राकृतिक परिस्थितियों में बिना किसी देखभाल के अच्छी तरह से उगती है। इसके इसी गुण से प्रभावित होकर वैज्ञानिकों ने इसे आलसियों की फसल का नाम दियाअर्थात एक बार बच को खेत में ठीक से बोने की ही देर है इसके बाद यह स्वयं ही वृद्धि करती जाती है और11-12 महीनों के बाद पक कर तैयार हो जाती है। यदि किसान विभिन्न आदानों का प्रयोग करें तो भी ठीक न करें तो भी ठीक। बच की खेती एक सस्ती खेती है। यही कारण है कि यह छोटे और मध्यम किसानों के लिए उपयुक्त मानी गई है। धान के खेत चूंकि पानी से भरे होते हैं और धान की खेती के बाद लंबे समय तक उनमें नमी बनी रहती है। अत: कम सिंचाई पर भी इन खेतों में बच को सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। यदि कोई किसान सोचे कि सूखी जमीन में सिंचाई के आधुनिक साधन जुटाकर सिंचित बच की खेती की जाए तो यह उसके लिए घाटे का सौदा साबित हो सकता है।
          बच की खेती के लिए उत्तर प्रदेश के किसानों ने कई नये विकल्प तैयार किये हैं। किसानों के पास विशेषकर गंगा जैसी बड़ी नदियों के आस-पास के किसानों के पास बहुत सी ऐसी जमीन है जहां लगातार पानी भरा होने के कारण उनका किसी भी प्रकार से उपयोग नहीं हो पाता है। जब उन्होंने बच के विषय में जाना तो उन्हें ऐसी बेकार पड़ी जमीन के लिए यह उपयुक्त फसल लगी। छोटे स्तर पर प्रयोग आरंभ किये गये और शीघ्र ही बड़े पैमाने पर उन्होंने खेती आरंभ कर दी। हमारे आस-पास भी बहुत से स्थानों पर पानी भरा होने के कारण हम उन स्थानों का उपयोग नहीं कर पाते हैं और वहां पर मच्छर आदि पनपते रहते हैं। यदि इन स्थानों पर बच का रोपण कर दिया जाए तो न केवल जमा हुआ पानी साफ रहेगा बल्कि अतिरिक्त आय के रूप में धन की  प्राप्ति भी हो सकेगी। भले ही सुनने और पढ़ने में यह साधारण सी बात लगे पर देश के लाखों बोरबेल के पास जमा हुआ पानी भी बच के पौधों के रोपण के लिए उपयुक्त है। यह गंदा पानी एक बार फिर से जमीन के अंदर चला जाए और शुद्ध भूमिगत जल को दूषित करें इससे पहले बच जैसे पौधों को लगाकर इसे साफ किया जा सकता है। इस बात की भी आवश्यकता है कि बच के व्यवहारिक उपयोग के प्रचार-प्रसार करने के लिए व्यापक जन-जागरण अभियान चलाया जाए ताकि लोग स्वयं पहल करें और ऐसे स्थानों पर अविलंब बच के पौधों का रोपण हो सके।
          आरंभिक दिनों में जब बच की व्यवसायिक खेती आरंभ हुई तब पौध सामग्री की कमी होने के कारण प्रति पौधा से रूपये की कीमत रखी जाती थी। चूंकि एक एकउ में 40,000 पौधे लगते हैं इस हिसाब से यह खेती छोटे किसानों के लिए कठिन जान पड़ती थी। जब बड़े पैमाने पर बच की खेती आरंभ हुई और पौध सामग्री सर्वत्रा उपलब्ध होने लगी,तब पौधों के दाम घटकर से 10 पैसे हो गये। इस घटी हुई कीमत ने इस खेती को छोटे और मध्यम किसानों के बस में कर दिया। पर यह विडम्बना ही रही कि ज्यादातर किसान बच के प्रसंस्करण पर ध्यान देने के बजाय उसकी पौध सामग्री बेचने में रूचि लेते रहे। छत्तीसगढ़ में जब कलकत्ता के व्यापारियों ने बच की खेती में रूचि दिखाई तब कुछ किसानों ने कंदों को सुखाकर बेचना आरंभ किया। चूंकि यह फसल उनके लिए नई थी इसलिए प्रसंस्करण विधियों के विषय में उन्हें कम ही जानकारी थी। बहुत से किसानों ने कंदों को पूरी तरह से तैयार होने के पहले ही एकत्रित कर लिया जबकि बहुतों ने कंदों को छायादार स्थानों पर सुखाने के बजाय धूप में सुखाया। इससे कंदों में आवश्यक तेल की मात्रा कम हो गई ओर साथ ही सुगंध पर भी विपरीत प्रभाव पड़ा। ये किसान कलकत्ता के व्यापारियों को कंद बेचते तो रहे पर असल बाजार जानने की कोशिश नहीं की। यही कारण है कि 30 से 35 रूपये प्रति किलो के हिसाब से बिकने वाले बच के 10 से 15 रूपये प्रति किलो ही छोटे और मध्यम किसानों को मिलते रहे। उन्हें तुरंत पैसे भी नहीं मिलते थे। इसके लिए उन्हें से 8महीनों का लंबा इंतजार करना पड़ता था। इस प्रारंभिक कठिनाई ने बहुतों को प्ररित किया कि वे या तो बच की खेती बंद कर दें या फिर इसकी पौध सामग्री ही बेचें। शुरूआत के 5-6 वर्षों में पौध सामग्री का अच्छा बाजार रहा। यूं तो बच का प्रसंस्करण कठिन नहीं है और कुशल मार्गदर्शन में कम समय और कीमत पर आसवन संयंत्रोँ  हो सकती है। पर किसानों की रूचि के चलते बच उत्पादक क्षेत्रो  की स्थापना नहीं हो पाई। ज्यादातर किसान अशिक्षित थे और राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों तक पहुंच का सशक्त माध्यम इंटरनेट उनके पास नहीं था इसलिए वे मजबूरीवश हाथ पर हाथ रखे बैठे रहे। इस विकट समय में सरकारी और गैर सरकारी संगठनों ने पहल की होती और किसानों और इन विक्रेताओ का कार्य किया होता तो न केवल किसानों को कैलेमस आईल के उत्पादन की प्रेरणा मिलती बल्कि उन्हें बहुत अधिक लाभ भी हो पाता।यद्यपि धाकी खेती की जैसी ही परिस्थितियों में बच को लगाया जा सकता था। पर किसानों ने कभी इस प्रयोग को करने की नहीं सोची। यदि धान को बच के साथ लगाया जाए तो क्या परिणाम होंगेदेश के बड़े-बड़े कृषि अनुसंधान संस्थान भी इसमें दिलचस्पी लेते नहीं दिखे। अंतत: वनौषधी उत्पादक श्री दीन दयाल वर्मा ने यह बीड़ा उठाया और धान के साथ बच की मिश्रित खेती आरंभ कर दी। चूंकि वे वनौषधियों की व्यवसायिक खेती में रसायनिक आदानों के प्रयोग के पक्षधर थे अत: धान और बच की मिश्रित खेती में उन्हें अधिक परेशानी नहीं हुई। उन्होंने अपने आरंभिक प्रयोगों में बताया कि शुरू के 4-5 महीनों में जब धान की फसल तैयार होती है तब तक बच की वृद्धि बहुत धीमी होती है। जब धान की फसल कट जाती है उसके बाद बच का बढ़ना आरंभ होता है। उन्होंने यह भी बताया कि धान की खेतों में बच की उपस्थिति धान को कीटों और रोगों सें बचाती हैं। धान और बच के पौधे एक दूसरे को नुकसान नहीं पहुंचाते । देश भर के किसानों और वैज्ञानिकों ने इस प्रयोगको सराहा और तब जाकर छत्तीसगढ़ के कृषि अनुसंधान संस्थान ने इस पर ध्यान देना प्रारंभ किया। जैसाकि भारतीय किसानों के साथ हमेशा से होता आया है कि उनसे ही सारी तकनीकी जानकारी लेकर कृषि वैज्ञानिकों ने इस खेती पर आधारित शोध-पत्रा प्रकाशित किया और वाहवाही लूटी। पर इन शोध-पत्रोँ मे इस  अनूठी विधी को विकसित करने वाले किसान श्री दीन दयाल वर्मा को धन्यवाद देना भी उन्होंने मुनासिब नहीं समझा। धान की रसायनिक खेती कर रहें वे किसान जोकि बच की खेती में रासायनिक आदानों का प्रयोग नहीं करना चाहेते थे वे असमंजस्य में दिखे। इस मिश्रित खेती में धान में कृषि रसायनों का उपयोग  बच की गुणवत्ता को प्रभावित करता है और यदि जैविक विधि से धान की खेती की जाती है तो धान का उत्पादन कम होता है। ऐसे समय में असमंजस में पड़े किसानों को यह सलाह दी गई कि वे धान की व्यवसायिक किस्मों के साथ बच की खेती न करें। बच और धान अलग-अलग लें। वे किसान जोकि सुगंधित धान की किस्मों की खेती जैविक विधि से कर रहें हैं वे बच को धान के साथ उगायें। पर चूंकि ऐसे किसानों की संख्या बहुत कम थी इसलिए यह मिश्रित खेती सफल होकर भी जमीनी स्तर पर असफल साबित हुई। शोधकर्ता चाहे तो ऐसी विधि का विकास कर सकते थे जिसमें रसायनिक और जैविक आदानों का संतुलित प्रयोग होता और धान की उपज अधिक होती एवं बच की गुणवत्ता पर भी बुरा प्रभाव नहीं पड़ता।
          यद्यपि देश के बहुत से वनों में विशेषकर दलदली क्षेत्रोँ में आज भी बच पर्याप्त मात्रा में प्राकृतिक रूप से उगती है और राष्ट्रीय बाजारों का एक बड़ा हिस्सा इन्हीं वनों से प्राप्त होता है पर पिछले कुछ वर्षो में बच की मांग में हुई अचानक वृद्धि से वनों के स्त्रात कम पड़ने लगे हैं। वनौषधी संग्रहकर्ता इस बात का खुलासा करते हैं कि अविवेकपूर्ण एवं अनैतिक दोहन से बहुत से वन बच विहीन हो गये हैं। यदि से 10 वर्षों तक इनके एकत्रण पर प्रतिबंध नहीं लगा तो स्थिति और भयावह हो जायेगी। वनों पर बढ़ते दबाव ने भारतीय किसानों को एक सुनहरा मौका प्रदान कर दिया है। वे इस कमी का लाभ उठाते हुए व्यापक पैमाने पर बच की खेती कर सकते हैं। पहले की गई भूलों से सबक लेना बहुत जरूरी है और बच की विस्तृत खेती के साथ-साथ इसके प्रसंस्करण और विपणन पर पर्याप्त ध्यान देना भी आवश्यक है। वनों में इसकी घटती उपलब्धता को कम करने के लिए वनवासियों और पारंपरिक चिकित्सकों से सीख ली जा सकती है। उनके द्वारा पीढ़ियों से अपनाई जा रही वनौषधी एकत्राण की चक्रीय विधियों को अपनाया जा सकता है। जैसा ऊपर बताया गया है कि बच की फसल को आलसियों की फसल कहा जाता है। प्राकृतिपरिस्थितियों में बच बहुत अधिक तेजी से वृद्धि करती है। बच की खेती करने वाले किसान बताते हैं कि पौध सामग्रियों के लिहाज से आधे एकड़ की आबादी बहुत तेजी से गुणन करते हुए एक वृद्धि काल में अर्थात11 से 12 महीनों में 15 एकड़ की फसल बन जाती है। यद्यपि इसे बिनाकिसी देखभाल के उगाया जा सकता है पर बच उत्पादकों के साथ मिलकर मैंने इसकी उन्नत कृषि की तकनीकें विकसित करने की कोशिश की है। अन्य फसलों की तरह खेत की तैयारी के समय अधिक मात्रा में सड़ी हुए गोबर की खाद का प्रयोग बहुत आवश्यक है। आम तौर पर प्रति हैक्टियर  15 से 20 टन गोबर की खाद डाली जानी चाहिए। इस खाद के साथ लाभ पहुंचाने वाले सूक्ष्म जीवों को चूर्ण के रूप में मिलाया जा सकता है। खाद के साथ यदि सूक्ष्म जीव खेत में पहुंच जाते हैं तो वृद्धि की उचित अवस्था मिलने पर वे पूरे खेत में फैल जाते है। बच के पौधों में कवक जनित रोगों की रोकथाम में ये लाभदायी सूक्ष्म जीव मील के पत्थर साबित होते हैं। गोबर की खाद के साथ नीम के खली का प्रयोग भी उपयोगी पाया गया है। पिसी हुई खली के स्थान पर किसान साबुत खली खरीदें और उसे घर पर ही पीसे क्योंकि पिसी हुई खली में मिलावट की बहुत अधिक संभावना रहती है और सही मायने में इसका लाभ फसल को नहीं हो पाता है। खेत की तैयारी से पूर्व मृदा सौरीकरण की विधि भी किसानों अपना सकते हैं। इससे कांस और मोथा जैसे खरपतवार नष्ट हो जाते हैं। बच की खेती में इन घातक खरपतवारों की उपस्थिति सामान्य है। यद्यपि हमारे पास वैज्ञानिक आंकड़े उपलब्ध नहीं है जोकि यह बतायें कि इन खरपतवारों से बच की फसल को कैसे और कितना नुकसान होता है पर अपने अनुभवों से इस बात को भलीभांति जानते हैं कि ये खरपतवार खेत में नहीं होने चाहिए। वे किसाने जो बच के साथ ब्राम्ही जैसी औषधीय फसलों की खेती करते हैं उनके लिए तो इन खरपतवारों को हटाना बहुत आवश्यक है। चूंकि कृषि रसायनों का प्रयोग जैविक कृषि में प्रतिबंधित हैं इसलिए वे चाहकर भी इनका उपयोग खरपतवारों को नष्ट करने के  लिए नहीं कर पाते हैं। इसलिए मृदासोरीकरण का अच्छा विकल्प और कोई नहीं है। बच की फसल की पहली बार खेती कर रहे किसान खेती से पहले पुराने बच उत्पादकों से मिलें,उनके अनुभव सुने और खेती के गुर सीखें ताकि वे पहले वर्ष से ही अधिक लाभांवित हो सकें।
          पहली बार बच की खेती कर रहे नये किसान पौधों की खरीद से पहले यह सुनिश्चित करें कि उन्हें जैविक खेती के माध्यम से उगाया गया है। जानकार तो बच की सुगंध से ही जैविक और रसायनिक खेती का अनुमान लगा लेते हैं। एक स्थान से बच की खरीद करने के बजाय किसान अलग-अलग बच उत्पादकों से मिले ताकि कम कीमत पर उच्च गुणवत्ता के पौधे प्राप्त हो सकें। यद्यपि बच की व्यवसायिक खेती में कीटों और रोगों का बहुत कम ही आक्रमण्देखा गया है पर सुरक्षात्मक उपाय के रूप में गोबर और गोमूत्रा का छिड़काव न केवल सुरक्षा के दृष्टिकोण से बल्कि पोष्टिक तत्वों के स्त्राोत के रूप में भी उपयोगी है। बच के खेत के चारों ओर मेड़ों पर कालमेघ नामक औषधीय फसल की कई कतारे लगाकर कीटों को फसल से दूर रखा जा सकता है। फसल की किसी भी अवस्था में पानी की कमी न होने दें। पानी की कमी से इसमें तेल की मात्राा कम होती है। छोटे और मध्यम किसान सिंचाई के अभाव में किसी भी समय बच को वैसे ही छोड़ सकते हैं पर कुछ समय के लिए। इससे बच की वृद्धि पर अधिक विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है। वनों में पाई जाने वाली प्राकृतिक बच के एकत्राण से पहले पारंपरिक चिकित्सक नाना प्रकार के औषधि मिश्रण की सहायता से उन पौधों को उपचारित करते हैं। इस उपचार का उद्देश्य पौधों को औषधीय गुणों में संपन्न बनाना है।आमतौर पर बच के आस-पास उग रहे बड़े वृक्षों से यह औषधि मिश्रण्ा तैयार किया जाता है यद्यपि इस पर वृह्द अनुसंधान अभी तक नहीं हुये हैं। पर इस परंपरागत ज्ञान को बच की व्यवसायिक खेती में उपयोग किया जा सकता है। इससे अधिक गुणवत्ता का बच उत्पादित किया जा सकता है और इन्हें खरीदने वाली कंपनियों से अधिक कीमत वसूली जा सकती है। यदि इस पर अनुसंधान किया जाए तो यह ज्ञान निश्चित ही किसानों के लिए मददगार साबित होगा।
          बच की फसल पकने पर इसकी पत्तियाँ झड़ने लग जाती है। यही समय है जब कि सिंचाई को रोककर नये पौधों को अंकृरित होने से रोका जा सकता है। कंदों की खुदाई पारंपरिक विधि से की जा सकती है और क्रेता कआवश्यकतानुसार अलग-अलग आकारों में काटा जा सकता है। जैसा ऊपर बताया गया है कि बच के कंदों को छायादार स्थानों में सुखाना चाहिए और अच्छे से संग्रहित करना चाहिए। यदि किसान भाई चाहे तो इसे काफी समय तक संग्रहित कर सकते हैं। ताकि फसल कटाई के 4-5महीने में बच की बढ़ी हुई कीमत का लाभ उठाया जा सके। बच कीआधुनिक खेती के विषय में उन्नत कृषि क्रियाओं का वर्णन करने वाले कई संदर्भ साहित्य उपलब्ध है। किसापास के कृषि अनुसंधान संस्थानों में जाकर इन्हें प्राप्त कर सकते है। ये उन्नत कृषि क्रियायें किसानो को अधिक उत्पादन में मदद करती है। अन्य वनौषधी की तरह ही बच की खेती भी किसान यदि समूह बनाकर करेंकुछ किसाखेती करेंकुछ इसकेप्रसंस्करण में  जुटे और शेष विपणन का दायित्व संभाले तो इस खेती कोनिश्चित ही लाभदायी खेती बनाया जा सकता है।
          यूं तो राष्ट्रीय स्तर पर दवा निर्मात्री संस्थायें बच की खरीद करती है परन्तु फिर भी हमारे प्राचीन चिकित्सकीय ग्रंथों में बच पर आधारित जितना औषधीय मिश्रणों का विवरण उपलब्ध है उसका एक छोटा प्रतिशत ही व्यवसायिक दवाओं के रूप में बाजार में उपलब्ध है। इस पर वृह्द अनुसंधान कर सभी औषधीय मिश्रण को बाजार में लाने की आवश्यकता है ताकि आम लोगों को लाभ हो सके और किसानों को बच की सही कीमत मिल सके। यदि हमारे योजनाकार चाहें तो बच उत्पादक क्षेत्रों में लघु प्रसंस्करण इंकाईयों की स्थापना कर इसका तेल निकलवा सकते हैं और साथ ही कई प्रकार की औषधि तैयार करवा सकते हैं। यद्यपि जैविक कृषि में बच के उपयोग की व्यापक संभावनाएं हैं और इस पर वृह्दअनुसंधान भी हुये है पर जमीनी स्तर पर बच का प्रयोग इस दिशा में नहीं हो रहा हैं। इन उत्पादों का निर्माण देश के बेरोजगार ग्रामीण युवकों को लाभ दिलवा पायेगा और बच की इस मांग को बढ़वा पायेगा। बतौर बजावटी पौधा बच ऐरोमा थैरेपी और गृह उद्यान उपचार जैसी नई चिकित्सा पद्धतियों में प्रयोग होने लगा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि निकट भविष्य में इन पद्धतियों के कारण भी बच की मांग बढ़ेगी। चूंकि बच पर भारत का एकाधिकार नहीं है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काफी कड़ा मुकाबला है इसलिए मैं बार-बार यही कहना चाहूंगा कि किसान गुणवत्ता से किसी भी प्रकार का समझौता न करें। बच की दुर्लभ प्रजाति के संरक्षण की आवश्यकता है। साथ ही टिश्यू कल्चर जैसे आधुनिक प्र्रवधन उपायों की सहायता से बिना प्राकृतिक आबादी को नुकसान पहुंचाये इसकी खेती आरंभ की जा सकती है। वनों में बच की घटती उपलब्धतता को ध्यान में रखते हुए इसके दोहन पर अंकुश लगाये जाने की आवश्यकता है। इससे भी अप्रत्यक्ष रूप से बच उत्पादकों को ही लाभ होगा।
          नये किसानों के लिए उपलब्ध कई तरह की औषधीय एवं सगंध फसल महंगी फसलों के रूप में प्रस्तुत की जाती है। ऐसे समय में बच निश्चित ही कम व्यय पर अधिक लाभ देने वाली फसल के रूप मेंस्थापित होती जा रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य में भी इसका प्रसार इसी तरह होता रहेगा।

For your queries on Indian Medicinal and Aromatic crops you can write to Pankaj Oudhia at pankajoudhia@gmail.com  Please write "Consultation" as subject.

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