औषधीय फसल केवॉच ( म्यूकूना प्यूरियेन्स ) की वर्तमान दशा और दिशा: मेरे अनुभव

औषधीय फसल केवॉच ( म्यूकूना प्यूरियेन्स ) की वर्तमान दशा और दिशा: मेरे अनुभव

पंकज अवधिया,
वनौषधी विशेषज्ञ,
रायपुर (छत्तीसगढ़)

          यूं तो केवॉच को हम सभी इसकी फलियों में उपस्थित छोटे-छोटे रोमों के कारण होने वाली असहनीय खुजली के कारण जानते हैं पर बतौर औषधीय वनस्पति न केवल भारत बल्कि दुनिया भर के चिकित्सकीय ग्रंथों में इसे सम्माननीय स्थान प्राप्त है। विश्व के किसी हिस्से में जमीन की उर्वरता बढ़ाने के लिए इसकी खेती की जाती है तो किसी हिस्से में बतौर औषधीय फसल इसे उगाया जाता है। भारत में अनंत काल से पारंपरिक चिकित्सकों के अलावा आम लोग भी इस वनस्पति का प्रयोग कर रहें हैं। इसके सभी पौध भाग दिव्य औषधीय गुणों से परिपूर्ण हैं। अक्सर इसके बीजों का ही प्रयोग किया जाता है। इसका वैज्ञानिक नामम्यूकूना प्यूरियेन्स है। यह एक फलीदार पौधा है। हमारे देश में म्यूकूना की कई प्रजातियाँ पाई जाती है। पर इस प्रजाति का ही उपयोग ज्यादातर होता है। इस प्रजाति के भी दो प्रकार पाये जाते हैं एक काले बीजों वाली केवॉच और दूसरी सफेद बीजों वाली केवांच । इन दोनों रंगों के मिश्रण के आधार पर केवॉच को और कई प्रकारों में बांटा जा सकता है। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में काले बीजों वाली केवॉच की अधिक मांग है। यूं तो सफेद बीजों वाली केवांच में औषधीय गुण होते हैं पर काले बीजों वाली केवांच की तुलना में कम। काली केवांच में असहनीय खुजली पैदा करने का दुर्गुण होता है। भारतीय स्तर पर दवा निर्मात्री संस्थाएं काली केवांच का एकत्राण वनों से करवाती हैं। वनवासी इन बीजों का एकत्राण करते हैं और बड़ी ही सस्ती कीमत पर इनकी आपूर्ति कर दी जाती है। अन्य वनौषधियों की तरह ही प्रारंभिक संग्रहणकर्ता और इन क्रेताओं के बीच मध्यस्थों की लंबी कतार है। चूंकि केवांच के पौधों से बीजों का एकत्राण कियजाता है। अत: मूल आबादी पर विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है। यही कारण है कि भारतीय परिपेक्ष्य में इसकी व्यवसायिक खेती की आवश्यकता कभी महसूस नहीं की गई। हाल ही में हुए अनुसंधानों से जब यह पता चला कि भारतीय केवांच में एल-डोपा नामक प्राकृतिक रसायन पाया जाता हैजिसमें कि लाईलाज समझे जाने वाले पार्किन्सन नामक रोग को ठीक करने का माद्दा है तो अचानक ही केवांच की मांग बहुत बढ़ गई। उसने वनों पर दबाव बढ़ा दिया और केवांच का अनैतिक और अविवेकपूर्ण दोहन प्रारंभ हो गया। काली केवांच में खुजली होने के कारण इसके सभी बीजों को एकत्रित करना मुश्किल कार्य है। बढ़ी हुई मांग को देखते हुए वनौषधि संग्रहणकर्ताओं ने सरल पर घातक उपाय निकाला। उन्होंने केवांच के पके हुए पौधों को जलाना आरंभ कर दिया। पौधों को जलाने के बाद बीजों को एकत्रित किया जाने लगा। इससे बीज तो प्राकृतिक परिस्थितियों से गायब हुए साथ ही पूरा पौधा भी हमेशा के लिए नष्ट हो गया। इस बढ़ी हुई मांग ने कुछ ही वर्षों में वनों में केवांच की आबादी कम कर दी। तब औषधीय और सगंध फसलों से जुड़े विशेषज्ञों ने सोचा कि केवांच की कृषि तकनीक विकसित कर क्यों न इसकी व्यवसायिक खेती को प्रोत्साहित किया जाए। ताकि किसान को लाभ हो सके और वनों पर अनावश्यक दबाव कम किया जा सके। इस तरह देश में औषधीय फसल के रूप में केवांच को पहचाना जाने लगा।
          आमतौर पर पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में बलवर्धक के रूप में केवांच का प्रयोग किया जाए। इसे सैकड़ों प्रकार के प्रचलित औषधीय मिश्रणों में बतौर मुख्य घटक प्रयोग किया जाता है।  देश के बहुत से हिस्सों में केवांच की कच्ची फलियों से साग भी तैयार की जाती है। यह फली पशु चारे के रूप में भी प्रयुक्त होती है। इनमें उच्च मात्राा में प्रोटीन होता है। वनीय क्षेत्रों में केवांच से नाना प्रकार के व्यंजन बनाये जाते हैं। इनमें केवांच की खीरकेवांच हलुआ आदि प्रमुख है। इसका संस्कृत नामक्रॉच या आत्मगुप्त है। आधुनिक अनुसंधानों से यह साफ हो चुका है कि केवांच की फलियों और बीजों का विभिन्न मात्रा में सेवन शरीकी प्रतिरोधक क्षमता को मजबूत बनाता है। देश के ग्रामीण और वनीय अंचलों में केवांच का नियमित  प्रयोग वर्ष भर आम लोगों को नाना प्रकार की बीमारियों से बचाता है और इस प्रकार उनके चिकित्सकीय व्यय को कम करता है। केवांच की फलियों और बीजों के अलावा इसके पौधों का प्रयोग भी सूखे और ताजे दोनों ही रूप में बतौर औषधि होता है। हाल के दिनों में केवांच की जड़ों की मांग भी तेजी से बढ़ी है। जड़ों का एकत्राण अर्थात् पौधों का संपूर्ण नाश। इस मांग ने भी केवांच की प्राकृतिक आबादी पर खतरा पैदा किया है। सामान्यत: स्तंभक औषधि के रूप में केवांच की जड़ों का बाहरी और आंतरिक प्रयोग किया जाता है। भले ही विश्व के अन्य देशों में भूमि की उर्वरता बढ़ाने के लिए केवांच का प्रयोग होता है पर भारत में इस प्रयोग को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। अन्य फलीदार पौधों की तरह ही केवांच की जड़ों में भी वातावरणीय नाईट्रोजन का स्थिरीकरण करने वाले लाभदायी सूक्षम जीव पाये जाते हैं,जोकि भूमि की उर्वरता बढ़ते है। यही कारण है कि जिन क्षेत्रो में केवांच उगता है उन स्थानों की मिट्टी बहुत कम उर्वर जमीन में छिड़क दी जाती हैं ताकि इसे समृद्ध बनाया जा सके। भले ही आधुनिक वैज्ञानिक इस मिट्टी को नाईट्रोजन व अन्य पोषक तत्वों में  धनी माने पर देश केपारंपरिक चिकित्सक इस मिट्टी का प्रयोग बतौर औषधि करते हैं। इसका बाहरी प्रयोग न केवल शरीर को ठण्डक प्रदान करता है बल्कि तरह-तरह के त्वचा रोगों से भी बचाता है। कम मात्रा में इसका प्रयोग शरीर के विषाक्त तत्वों को बाहर निकालने में मददगार साबित होता है। केवॉच से होने वाली असहनीय खुजली को हटाने के लिए कई प्रकार के पारंपरिक उपायों का प्रचलन भारत में है। आमतौर पर हाथों में ताजा गोबर लगाकर केवॉच की फलियाँ तोड़ने से खुजली नहीं होती है। खुजली हो जाने पर भी बतौर उपचार गोबर का प्रयोग इसी तरह किया जाता है। आधुनिक संग्रहणकर्ता हाथों में पोलीथीन बांधकर भी केवॉच के एकत्राण का प्रयास करते हैं पर यह एक अधिक समय लेने वाला कार्य बन जाता है। यदि देश के पारंपरिक चिकित्सकों की माने तो प्राकृतिक परिस्थितियों में केवॉच की समस्या का उपाय मॉ प्रकृति के पास में है। आमतौर पर कुछ खास प्रकार के पौधे केवॉच के चारों ओर उगते हैं। केवॉच की रोम युक्त फलियाँ तोड़ने से पहले इन पौधों को चबा लिया जाता है। कुछ ही पलों में शरीर में इस खुजली को सहन करने की क्षमता विकसित हो जाती है। केवॉच की व्यवसायिक खेती कर रहे किसानों के लिए यह पारंपरिक ज्ञान बहुत ही उपयोगी है। केवॉच के साथ इन सहयोगी वनस्पतियों को बोकर फसल की कटाई के समय इनका उपयोग कर सफलतापूर्वक अधिक दामों वाली काली केवॉच का एकत्राण कर सकते हैं। जहां एक ओर पूरे पौधे को जला देने का उपाय वनों के दृष्टिकोण से घातक है। वही किसानों के खेतों पर इसे जलाना नुकसान दायक नहीं है। यह किसानों को सफलतापूर्वक फली के एकत्रण   मदद करता है। पर बहुत से पारंपरिक चिकित्सकों का मानना है कि अधिक तापक्रम पर केवॉच के बीजों के औषधीय गुणों में कमी हो जाती है। अत: सहायक वनस्पतियों का प्रयोग ही उपयोगी जान पड़ता है। यहां एक और रोचक बात यह है कि सफेकेवॉच की तुलना में काली केवॉच के बीजों की अधिक मांग से परिचित वनस्पति संग्रहणकर्ता सफेद केवॉच के पौधों को आग लगाते हैं जिससे बीज जलकर काले हो जाते हैं । फिर इस जले हुए बीजों की मिलावट काले केवॉच में कर दी जाती है। यद्यपि नंगी ऑखों से यह पहचान पाना मुश्किल है पर आधुनिक प्रयोगशलाओं में इस प्रकार की मिलावट को चंद मिनिटों   में पकड़ा जा सकता है।
            जिस तरह सफेद मूसली संपन्न किसानों के लिए और बच छोटे-मध्यम किसानों के लिए उपयुक्त फसल है उसी तरह केवॉच को अगर छोटे किसानों की फसल कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। केवॉचके पौधे बेलदार होते हैं। इन्हें उगने के लिए सहारे की आवश्यकता होती है। यही कारण है कि किसानों को सलाह दी जाती है कि इसे मुख्य फसल की तरह लगाने की बजाए बाड़ों पर बेल की तरह चड़ा कर खेती की जाए। एक बार उन्हें  इस तरह चढ़ा देने से यह स्वत: ही फैलती रहती हैं। यदि किसान भाई बाड़ के रूप में लकउी का प्रयोग करते हैं यासीमेंट के खम्बों का प्रयोग करते हैं तो तारों के ऊपर केवॉच की बेलों को फैलाया जा सकता है। इससे कई फायदें हैं। केवॉच की सघन वृद्धि बाड़ को एक अभेद्य दीवार की तरह बना देती है जिसके उस पार कुछ भी नहीं दिखता है। इससे बाहरी पशुओं को अंदर आने में कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। यदि आपने काली केवॉच लगाई है तो यह सुरक्षा औरअधिक बढ़ जाती है क्योंकि इसकी असहनीय खुजली से न केवल पशु बल्कि मनुष्य भी भलीभांति परिचित है। आम तौर पर पशु केवॉच के पौधों को नहीं खाते हैं। बाड़ों में केवॉच की सघन वृद्धि किसानों के लिए प्रक्षेत्रा को सुन्दरता प्रदान करती है। बहुत से संपन्न किसानों ने सब्जियों की फसल की तरह मण्डप बनाकर मुख्य फसल के रूप में केवॉच कीव्यवसायिक फसल के प्रयोग किये। इससे उपज तो निश्चित ही अधिक हुई पर फिर भी मण्डप पर हुए अनावश्यक व्यय की कीमत वसूल नहीं हो पाई। वे किसान जिनके खेतों में बहुत से वृक्ष हैं वे इन वृक्षों को सहारे के रूप में उपयोग कर इस पर केवॉच की बेल चढ़ाते हैं। छत्तीसगढ़ में खेतों में मेढ़ों पर बबूल और अर्जुन के वृक्ष आमतौर पर पाये जाते हैं। इन वृक्षों पर आसानी से केवॉच को चढ़ाया जा सकता है। अप्रत्यक्ष रूप से केवॉच उन वृक्षों की वृद्धि पर सकारात्मक प्रभाव डालता है क्योंकि वे आसपास की जमीन को पोषक तत्वों से समृद्ध करती जाती है। बहुत से किसानों ने केवॉच को बिना किसी सहारे के उगा कर भी देखा।  उन्होंने पाया कि बिना सहारे के फसल तैयार तो हो जाती है पर नाना प्रकार के कीटों का आक्रमण अधिक होता है औउपज में कमी आ जाती है।
          आमतौर पर किसानों को औषधीय फसल के रूप में केवॉच की खेती बीजों के लिए करने की सलाह दी जाती है। से महीने की यह फसल बिना किसी अधिक देख-भाल के तैयार हो जाती है। बीजों में 90- 95 प्रतिशत तक अंकुरण क्षमता होती  है। बीज काफी बड़े होते हैं इसलिए वृद्धि की प्रारंभिक अवस्था में बिना पौष्टिक तत्वों के भी पौधा विपरीतपरिस्थितियों में तैयार हो जाता है। फसल की किसी भी अवस्था में केवॉच के पौधे पानी का जमाव सहन नहीं कर पाते। यही कारण है कि मुख्य फसल के रूप में इसकी खेती कर रहे किसानों से ढालदार जमीन के चयन की बात कही जाती है। यदि ढालदार जमीन न हो तो पानी की निकासी के समुचित प्रबंध होने चाहिए। यद्यपि रासायनिक खाद के माध्यम से केवॉच के अधिक बीज प्राप्त किये जा सकते हैंपर अधिक गुणवत्ता के बीज की प्राप्ति के लिए जैविक खाद आवश्यक है। किसानों के खेतों में किये गये प्रयोगों से अब यह स्पष्ट हो चुका है कि नीम,कालमेघगोमूत्राताजे गोमूत्रा आदि सरलता से मिलने वाले जैविकआदानों की सहायता से सफलतापूर्वक यह कृषि की जा सकती है। मात्रा गोमूत्रा के तनु घोल से बीजों को उपचारित करने से कवक जनित रोगों से बचाव हो जाता है। फसल की बुआई से पूर्व किसानों को अधिक मात्रा में सड़े हुए गोबर की खाद के प्रयोग की सलाह दी जाती है। इस अवस्था में लाभदायी सूक्ष्म जीवों को चूर्ण के रूप में मिला देने से फसल की रक्षा कटाई तक कवक जनित रोगों से होती रहती है। गोबर की खाद के साथ किसान भाई चाहे तो नीम या करंज की फली का प्रयोग भी कर सकते हैं। यूं तो केवॉच की सघन वृद्धि से आसपास कम ही खरपतवार उगते हैं। नी मृदासौरीकरण जैसी सस्ती विधि अपनाकर किसान सुषुप्ता अवस्था में पड़े खरपतवारों को भूमिगत भागों को अंकुरण के पूर्व ही सफलतापूर्वक नष्ट कर सकते  है। ताजे गोबरगोमूत्रा और नीम के मिश्रण से बने ग्रीनस्प्रे नामक घोल के प्रयोग से किसान भाई समय-समय पर केवॉच की फसल को पौष्टिक तत्व प्रदान कर सकते हैं। ग्रीनस्प्रे से कीट फसल से दूर रहते हैं। हाल ही के वर्षों में केवॉच पर एफिड कीटों का आक्रमण बहुत बढ़ गया है। ये एफिड मुख्यत: मटर की फसल पर आक्रमण करते हदेश के मध्य भाग में इन कीटों का प्रकोप बड़े स्तर पर केवॉच की फसल को बर्बाद करता है। ये कीट पौधों का रस चूसते हैं और उनके भोजन निर्माण की क्षमता को प्रभावित करते हैं। फलस्वरूप बीज छोटे बन जाते हैं और उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। लेडी बर्ड बीटल जैसे मित्रा   कीटों को समय-समय पर खेतों में छोड़कर आसानी से इन कीटों पर नियंत्राण पाया जा सकता है। केवॉच की रासायनिक खेती कर रहे किसान इन मित्रा कीटों का प्रयोग न करें क्योंकि कृषि रसायन इन्हें नष्ट कर देते हैं । एफिड कीटों के आक्रमण की उचित वातावरणीय परिस्थितियाँ आने पर पहले ही से ग्रीनस्प्रे का छिड़काव किया जाए तो कीट स्वत: ही फसल से दूर रहते हैं। कीटों के प्रकोप की आरंभिक अवस्था में ग्रीनस्प्रे प्रभावी ढँग  से उन्हें नियंत्रित करता है पर बहुत अधिक आक्रमण होने की स्थिति में मजबूरीवश किसानों को कृषि रसायनों का सहारा लेना पड़ता है। जैविक कृषि  की हिमायतियों के लिये यह एक प्रकार की चुनौती है कि वे किसानों के लिए इस बढ़े हुए आका को कम करने के लिए नये जैविक आदान विकसित करें। केवॉच की वैज्ञानिक खेती के विषय में काफी साहित्य उपलब्ध है। विभिन्न पत्रा-पत्रिाकाओं से एवं समीप के कृषि अनुसंधान केंद्रों में जाकर  किसान भाई यह जानकारी एकत्रित कर सकते हैं। बैहतर तो यही होगा कि किसान भाई पहले से केवॉच की खेती कर रहे किसानों के पास जाकर इस नई खेती को देखेजानेसमझे और वरिष्ठ किसानों से अनुभव प्राप्त करे जिससे उन्हें खेती में पहले ही वर्ष से लाभ होने लगे। बीजों को खरीदने से पहले ये सुनिश्चित करें कि वे जौविक विधि से ही तैयार किये गये हों । यदि आप जान-पहचान के किसानों से बीजों की खरीदी करते हैं तो आप सहज ही जान सकते हैं कि बीज किस तरह की खेती से तैयार हुए हैं। यद्यपि रासायनिक परीक्षणों के माध्यम से भी बीजों के जैविक खेती से तैयार होने का पता लगाया जा सकता हैपर यह सुविधा बड़े शहरों तक उपलब्ध है और यह विधि काफी खर्चीली भी है। अत: छोटे किसानों को इसे अपनाने की सलाह नहीं दी जाती है।
          जब भी छोटे किसानों को केवॉच की फसल के बारे में बताया जाता है तो इस बात पर जोर दिया जाता है कि केवॉच के बीजों को दूसरों को बेचने के साथ ही किसान अपनेअपने परिवार  और पशु धन के लिये भी इसका प्रयोग करें। जैसा कि ऊपर बताया गया है इसके कई सरल प्रयोग हैं। किसानों को इन प्रयोग के विषय में उन्हें अपनी भाषा में बताया जा सकता है। इससे वे केवॉच का उपयोग कर पायेंगे और वर्ष भर के चिकित्सकीय व्यय को काफी कम कर पायेंगे। केवॉच की उपस्थिति भूमि को उर्वरता बढ़ायेगी। केवॉच का फैलाव अनावश्यक खरपतवार को कम करेगा और केवॉच के बीजों को पशु चारे में मिलाकर किसान अधिकदूध प्राप्त कर सकेंगे। जब आप किसानों को इस तरह प्रशिक्षित करेंगे तो पहली फसल के बाद वे इन लाभों के   विषय में आस-पास जागृति फैलाकर अपने उत्पाद को बचा पायेंगे और छोटा बाजार तैयार कर पायेंगे। यदि किसान बड़े पैमाने पर केवॉच की खेती करें तभी बड़े शहरों के व्यापारी इसे खरीदने को तैयार होंगे। किसान समूह बनाकर श्रम विभाजन के द्वारा सामूहिक खेती कर सकते हैं और अपने ही कुछ साथियों को इसके बाजार की खोज में लगा सकते हैं। किसान भाई कृषि पत्रा-पत्रिकाओं की सहायता से अपनी खेती के विषय में खबरे प्रकाशित करवा सकते हैं ताकि बड़े शहरों के बड़े व्यापारी उनसे संपर्क कर सकें। अन्य वनौषधियों की तरह ही केवॉच के विपणन में मध्यस्थों की भरमार है। यदि समर्पितशासकीय और गैर शाससकीय संगठन किसानों को सही बाजार प्रदान करने का बीड़ा उठाये तो निश्चित ही छोटे किसानों को अधिक लाभ हो सकता है।
          अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर केवॉच की वर्तमान मांग और उपयोगिता को देखकर लगता है कि आगामी 4-5 वर्षों तक तो इसकी मांग अधिक रहेगी।  इसके बाद यदि नये उपयोग ढूंढ लिये गये  तब ही अधिक मांग बनी रह सकती है अन्यथा यह मांग अपने सामान्य स्तर पर आ जायेगी। सही मायनों में बड़े किसानों के लिए इस मांग में उतार-चढाव का अधिक महत्व है। छोटे किसानों के लिए सामान्य मांग भी केवॉच को पारंपरिक फसलों से अधिक लाभदायी बनाये रखेगी। आज आवश्यकता इस बात की है कि लगातार वर्षों से पारंपरिक फसलों से हानि उठा रहे किसान अब केवॉच जैसी फसलों को अपनाना आरंभ करें और सुखद भविष्य का आनंद लें।

For your queries on Indian Medicinal and Aromatic crops you can write to Pankaj Oudhia at pankajoudhia@gmail.com  Please write "Consultation" as subject.

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