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Showing posts from 2011

वट्टाकाका, पन्च पत्री और भिलावा पर पारम्परिक चिकित्सकों के अभिनव प्रयोग

पंकज अवधिया की जंगल डायरी ( अक्टूबर, २०११ से आगे) भाग-२ वट्टाकाका, पन्च पत्री और भिलावा पर पारम्परिक चिकित्सकों के अभिनव प्रयोग - पंकज अवधिया "इतने दुबले कैसे हो गये? और सिर के बाल कहां गये?" मैंने आश्चर्य से पूछा| युवा पारम्परिक चिकित्सक ने कुछ नही कहा| उसके साथी ने राज खोला कि पिछले कुछ समय से प्रयोग चल रहा है और शरीर की यह बुरी हालत उसी प्रयोग का परिणाम है| मै समझ गया कि पारम्परिक चिकित्सकों ने कोई नई बूटी खोजी है जिसके बारे में उन्हें बिलकुल भी ज्ञान नही है| यह कैसे असर करती है- इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए उन्होंने स्वयम पर प्रयोग आरम्भ कर दिए| लम्बे समय से पारम्परिक चिकित्सकों के साथ काम करते हुए मुझे सदा ही इन प्रयोगों पर अचरज होता रहा है| एक ओर हम शहरी लोग खान-पान में बड़ी सावधानी रखते हैं| किसी भी नये भोज्य पदार्थ को खाने से पहले इंटरनेट खंगाल लेते हैं| पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद ही उसे ग्रहण करते हैं पर पारम्परिक चिकित्सक अपने जीवन को खतरे में डालकर बूटियों का परीक्षण कर

तैयारी शरद पूर्णिमा की श्वांस रोगियों के लिए उपयोगी जड़ी-बूटियों के साथ

पंकज अवधिया की जंगल डायरी ( अक्टूबर, २०११ से आगे) भाग-१ तैयारी शरद पूर्णिमा की श्वांस रोगियों के लिए उपयोगी जड़ी-बूटियों के साथ - पंकज अवधिया शरद पूर्णिमा आने वाली है| सालों से उन पारम्परिक चिकित्सकों के अथक परिश्रम और निस्वार्थ सेवाओं को देख रहा हूँ जो हर साल बेसब्री से इस दिन की प्रतीक्षा करते हैं और फिर शरद पूर्णिमा की रात जब हजारों की संख्या में श्वांस रोग से प्रभावित आम लोग एकत्र हो जाते हैं तो रात भर जागकर बिना थके उन्हें अपने हाथों से बनाई विशेष खीर खिलाते रहते हैं| इसके लिए कोई पैसे नही लिए जाते हैं| दूध से लेकर शक्कर और सबसे महत्वपूर्ण जड़ी-बूटियों सभी का खर्च स्वयम वहन करते हैं| "ये तो जस का काम है|" वे कहते हैं| उन्हें असंख्य लोगो की दुआएं मिलती है| इससे बढ़कर और क्या हो सकता है भला| क्या एक बार एक चम्मच या उससे कुछ अधिक मात्रा में खीर का सेवन मौसम भर श्वांस रोगों से मुक्त रख सकता है? यह अहम् प्रश्न है विशेषकर आधुनिक युग के सन्दर्भ में क्योंकि आज का मानव दूषित वातावरण में रहने को मज

क्या देशी वनस्पतियाँ कुछ राहत पहुंचा सकती है रेडियेशन से घिरे जापानियों को?

क्या देशी वनस्पतियाँ कुछ राहत पहुंचा सकती है रेडियेशन से घिरे जापानियों को? -पंकज अवधिया "जापान में इन दिनों गेहूं से बनी बीयर की मांग तेजी से बढ़ रही है और कुछ भागों में इसकी कमी हो गयी है| किसी अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक ने विकिरण से बचने के लिए इसके प्रयोग का सुझाव दिया है| जापानी वैज्ञानिक यहाँ तक कि कुछ जापानी उच्चाधिकारी भी इसके पक्ष में खड़े दिखते हैं| उनका दावा है कि गेहूं के सत से तैयार बीयर में विकिरण के कारण होने वाली गुणसूत्रीय विकृति को कम करने की ३४ प्रतिशत तक क्षमता है| बीयर में अल्कोहल होना ही चाहिए क्योकि बिना अल्कोहल की बीयर गेहूं के सत को ठीक से पचने नहीं देती है| " मेरे जापानी मित्र शिंजी टकारा अपने १७ मार्च के संदेश में लिखते हैं| वे सुरक्षित हैं पर विकिरण यानि रेडियेशन के खतरे से चिंतित हैं| जापान में फ़ैल रहे विकिरण की खबरों के बीच मुझे बार-बार बकव्हीट का नाम याद आ रहा है| बरसों पहले किये गए लम्बे अनुसन्धान में इसकी पहचान ऐसी वनस्पति के रूप में की गयी थी जिस पर आश्रित रहने व

जल शुद्धिकरण का पारम्परिक ज्ञान नदियों को कर सकता है प्रदूषणमुक्त

जल शुद्धिकरण का पारम्परिक ज्ञान नदियों को कर सकता है प्रदूषणमुक्त -पंकज अवधिया चाहे गंगा हो या महानदी प्रतिवर्ष बड़ी संख्या में मेले के रूप में आम लोगों का बड़ी संख्या में जमावड़ा नदियों को प्रदूषित करने में कोई कसर नहीं छोड़ता है| पूजन सामग्री से लेकर गुटखों के पाउच-सब कुछ नदी में बहता है और प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण को अपूरणीय क्षति पहुंचाता है| बेहतर तो यही होता कि सालाना मेलों की बजाय दस से बारह वर्षों में एक बार मेला लगता ताकि बीच के लम्बे समय में नदियों को सम्भलने का कुछ मौक़ा मिल सकता| पर यह सम्भव नहीं दिखता| ऐसे में छत्तीसगढ़ में जल से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान अहम भूमिका निभा सकता है| राज्य में अब तक २५० से अधिक ऐसी वनस्पतियों की पहचान हो चुकी है जो प्रदूषित जल को साफ़ करने का माद्दा रखती हैं| इन वनस्पतियों के आधार पर हजारों ऐसे मिश्रण बनाये जा सकते हैं जिनके प्रयोग से मेलों के दौरान नदियों के प्रदूषण को काफी हद तक कम किया जा सकता है| यह विडम्बना ही है कि सबसे पहले छत्तीसगढ़ से ही मुनगा और निर्मली के बारे में जानकारी पूरी दु