पारम्परिक चिकित्सको की नुमाइश का खेल अब बन्द हो

पारम्परिक चिकित्सको की नुमाइश का खेल अब बन्द हो
- पंकज अवधिया
पिछले दिनो मेरे एक मित्र ने मुझे फोन कर कहा कि एक छोटा सा आयोजन है जिसमे उनके कुछ फिल्मकार मित्र दिल्ली से आ रहे है, तुम कुछ पारम्परिक चिकित्सको को भेज देना। क्यो? ये फिल्मकार उनसे बात करेंगे। इस तरह के फोन मेरे लिये नयी बात नही है। हर कोई चाहता है कि मैने जिन पारम्परिक चिकित्सको बे बीच काम किया है उनसे मिलकर कुछ जाना जाये। यह उद्देश्य पवित्र हो तो इसमे कोई बुराई नही है। पर इस दिशा मे मेरा अनुभव अच्छा नही रहा है। मैने अपने मित्र से पूछा कि पारम्परिक चिकित्सको को इससे क्या मिलेगा? उसका उत्तर था कि दो समय का खाना खिला देंगे और आने-जाने का खर्च दे देंगे। मैने पूछा, और उसका क्या जो फिल्मकार इन फिल्मो को बेचकर कमायेंगे। फिर इन फिल्मो से नये लोग आयेंगे। वे भी यही करेंगे। कुछ ऐसे लोग भी आयेंगे जो दबावपूर्वक उनसे राज उगलवाना चाहेंगे। हो सकता है कि वे ऐसे प्रयास फिल्म को रोचक और सनसनीखेज बनाने के लिये करे। इससे पारम्परिक चिकित्सको को तो कुछ हासिल नही होने वाला। यह भी जरुरी नही है कि फिल्मकार केवल पारम्परिक चिकित्सको का पक्ष दिखाये। हो सकता है वे इसमे आधुनिक चिकित्सको के कथन जोड दे कि ये आम लोगो के लिये खतरा है। इससे अच्छा तो यही है कि वे अपने परिवेश मे रहे और वैसे ही आम लोगो की सेवा करते रहे जैसे वे पीढीयो से करते रहे है। मै क्यो सब कुछ जानते बूझते हुये इस खेल मे शामिल हो जाऊँ, सिर्फ नाम के लिये। इसलिये मै व्यस्तता का बहाना कर इससे दूर ही रहना पसन्द करता हूँ।
बतौर सलाहकार अहमदाबाद सहित देश के बडे शहरो के कई संस्थानो मे मेरा जाना हुआ है जहाँ पारम्परिक चिकित्सको की नुमाइश आम है। कभी कोई राजनेता इनके साथ तस्वीरे खिचवाता है तो कभी संस्थानो के मुखिया। पर कोई यह प्रयास नही करता कि इन्हे समाज की मुख्यधारा मे लाया जाये। इनके ज्ञान के आधार पर इंन्हे सेवा करने की छूट दी जाये। इन्हे कानूनी सहायता मिले। मेरे मित्र कहते है कि ऐसे आयोजनो मे इनकी उपस्थिति ही से इन्हे कानूनी मान्यता मिलेगी। पर वास्तव मे ऐसा नही है। आयोजन के बाद इन्हे भुला दिया जाता है। फिर तब याद किया जाता है जब अगला आयोजन होता है। पारम्परिक चिकित्सको और पारम्परिक ज्ञान के नाम पर विदेशो से बहुत पैसा मिलता है। जंगल विभाग वाले भी इसी चक्कर मे इस तरह के आयोजन करते है। मै अतिथि वक्ता के रूप मे इन आयोजनो मे गया हूँ। मुझे पारम्परिक चिकित्सक कुछ सहमे हुये लगे। कई बार शिकायत मिली कि उनसे कैमरे के सामने सारे राज उगलवाने के लिये दबाव बनाया गया। वे शिकायत करे भी तो किससे?
विदेशी सैलानियो के साथ आये स्थानीय अधिकारी भी मुझसे पारम्परिक चिकित्सको को मिलवाने की बात करते है। मै कहता हूँ कि पहले आप बायोडायवर्सिटी बोर्ड से अनुमति ले लीजिये फिर मै आपकी मदद करूंगा। इस पर अधिकारी कहते है कि विदेशी हमारे मेहमान है और किसी भी कीमत पर हमे उन्हे खुश रखना है। मै पारम्परिक ज्ञान पर खतरे की कीमत पर मेहमाननवाजी के लिये तैयार नही हूँ। छत्तीसग़ढ मे तो हजारो पारम्परिक चिकित्सक है और मैने अपने लेखो मे उनके विषय मे लिखा है। इसी सहारे अधिकारी उन तक जा पहुँचते है और उन्हे परेशान करने लगते है। हाल ही मे मैदानी इलाके के एक पारम्परिक चिकित्सक ने शिकायत की कि एक ही प्रकार से जडी-बूटी एकत्र करने को कई बार फिल्माया गया। सम्भवत: रिटेक से वे परेशान हो गये थे। एक फिल्म की शूटिंग कई सप्ताह तक चलती है। यही कारण है कि वे बडा ही असहज महसूस करते है।
आने वाले दिनो मे यह सब और बढने वाला है। आवश्यकता इस बात का है कि आचार-सन्हिता तैयार की जाये ताकि इन प्रकृति पुत्रो को कम से कम परेशानी हो। यह तभी सम्भव है जब हमारा समाज सही मायने मे इनके महत्व को समझे और इन्हे अपनाये।
सम्बन्धित आलेख
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
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ऐसा ही शोषण लोक कला और लोक शिल्प का हो रहा है। पता नहीं क्या समाधान है।

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